सांख्यदर्शनम (१८२२) | Sankhyadashanam(1822)
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
215
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(९० ) सांख्यद श्न ।
जो प्रकृतिके निमित्तसे बंध माना जावे ते नहीं होसकता क्योंकि
उसके बंधको निमित्त होनेमें भी उप्तका व पुरुषका संयोग होना परतंत्र
( परके अधीन ) है प्रकृतिके अधीन नहीं हे आंगे इसका वर्णन किया
जायगा प्रकृतिके अधीन न होंनद्व प्रकृति निमित्तसे भी बंध होना सिद्ध
नहीं होता यद्यपि प्रकृति स्वतंत्र बंधका कारण नहीं हे परन्तु उपाधिसे
प्रकृतिका संयोग ही बंधका हेतु है जेसा कि सृत्रकारने आगे इस सूत्रमें
कहा है ॥ १८ ॥
शी ক্ষ
न् नत्यद्द् बद सुक्तस्वभावस्य तद्यागस्त
১ क
दगात् । १९ ॥
+ धक क क
नत्यशुद्धाचतन मुक्त स्वभावका उसके याग राहत
होनेमे उसका योग नदीं है ॥ १९॥
उसके अर्थात् प्रकृतिके योग रहित दनि नित्य शुद्ध चेतन मुक्त स्वभाव
पुरुषको उसका योग नरी ই अथौत् बैधका योग नश है अभिभराय यह्
है कि जब तक प्रकृतिका योग है तभीतक इपाधिसेपुर-
অনা অর্ধ হালা ज्ञात होता है यह सूत्र विशेष वर्णनके योग्य ই परंतु
आगे य्ंथम विशेष व्याख्यान किया है इससे यहं, विस्तार करनेकी
आवश्यकता न जानकर संक्षेप ही वणेन किया हे पूवे वर्णनसे बंधन न
स्वाभाविक ই न नैमित्तिक दे गवर उपाधिसे है जेसे अग्निख्ंयोगसे जलमें
गरमी होती है इष्टी प्रकारसे पुरुषमें ओपाधिक बंध है व दीपकी
शिखाओंकी सहश वित्तकी वृत्तियां जो दुःखकी कारण हैं उनके नाश
होनेसे उनके धर्म दुःख इच्छा अदिकोंका नाश होना संभव होता
है प्रकृतिक वियोगसे पुरुषके ओपाधिक बंधका अभाव होजाता है व
संयोगका निवृत्त होना यदी मुक्तिकी प्रातति व बंधकी हानिका उपाय है
॥ १० ॥ अब जे अद्वितवादी अविद्या मात्रसे बंध मानते हैं उनके मतके
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खण्डनमें वर्णन करते हैं ॥
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