आपेक्षिकता का अभिप्राय | Apekshikta Ka Abhipray
श्रेणी : विज्ञान / Science
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
84 MB
कुल पष्ठ :
195
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about ऐलबर्ट आइन्स्टाइन - Albert Einstain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)শপ ১
व्यापक आपेक्षिकता का उद्देश्य प्रमुखतः यांत्रिकी तथा गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्तों
का एकीकरण था। किन्तु प्रकृति में केवल इन्हीं दो जातियों के बल नहीं होते ।
विद्युत्-चुम्बकीय (০1০০0:92928500০) तथा नाभिकीय (90८०४) बलों
का अस्तित्व भी निश्चय ही है। अतः जिस प्रकार व्यापक आपेक्षिकता ने यांत्रि-
कीय तथा गुरुत्वीय बलों का चतुविमितीय दिक-काल सांतत्यक की ज्यामिति के द्वारा
स्पष्टीकरण कर दिया है, उसी प्रकार जो सिद्धान्त इन अन्य प्रकारके बलो का भी स्पष्टी-
करण करने में सफल हो जायगा वही अधिक संतोषजनक समझा जायगा । किन्तु यह्
समस्या प्रथमतः जितनी सरल दिखाई देती है, वस्तुतः उतनी सरल है नहीं ।
व्यापक आपेक्षिकता के सिद्धान्त में विद्युतू-चुम्बकीय बरक-क्षेत्र को समाविष्ट करने
के लिए पहले तो हमें मैक्सवैल (४०४७८) के समीकरणों पर विचार करना
पड़ेगा । किन्तु यहु कायं सुगम नहीं है । आइन्स्टाइन ने अपने अंतिम ३० वषं एसे
ही “एकीकृत क्षेत्रसिद्धान्त (1106 ९14 7०००५)” का निर्माण करने के
प्रयत्न मे बिताये । फिर भी उन्हें स फलत) नहीं मिली । अपने अन्त कार तक
आइन्स्टाइन का दढ विश्वास था कि यद्यपि आज गुरुत्वाकषण बल, विदयुत्-चुम्बकीय
बल तथा नाभिकीय बल विभिन्न रूपों में तथा विभिन्न प्रकार से भौतिक विज्ञान मं
व्यक्त किये जाते हं, किन्तु मूतः उनमें भिन्नता नहीं है । दिक्-कार सांतत्यक मेँ उन
सभी का एकीकरण अवश्य ही संभाव्य ই । एसे नवीन सिद्धान्त का निर्माण करने
के लिए अनेक सुविख्यात वैज्ञानिकों ने प्रयत्न किये हैं और अब भी कर रहे हैं। किन्तु
उन सबकी असफलता से यह् प्रशन उपस्थित होता है कि भौतिकी का एसा ज्यामितीकरण
कहाँ तक उचित है । इस सम्बन्ध में विख्यात वैज्ञानिकों के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार
के सिद्धान्त प्रस्तूत किये गये हँ । इनमे मिलने (1411५), द्भवाइटहैड (५५1६८
९24} , हयक (0९८) आदि के नाम प्रमुख हँ । अब यह् समस्या केवर भौतिक
विज्ञान की समस्या ही नहीं रह गयी है। दर्शनशास्त्र, गणित आदि के विद्वानों नं
भी इसे अपनाया है । जितनी प्रगति अब तक हो चुकी है उससे यह आशा होती है कि
किसी न किसी दिन यह समस्या भी हल हो ही जायगी । और तब हमारे विचारों
और धारणाओं में एक बार फिर वैसी ही क्रान्ति दह्ये जायगी जैसी कि वर्तमान में
आपेक्षिकता के सिद्धान्त से हुई है ।
उपरि-निदिष्ट विवेचन अपेक्षिकता के सिद्धान्त के विकास का एक छोटा-सा
सिहावलोकन मात्र है । इस सिद्धन्त की समस्याएं नित्य के व्यवहार कौ नहीं है । इस-
लिए इनको हल करने का प्रयज्ञ भी असाधारण प्रकार का है। इनमें प्रयुक्त गणित के
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