विचित्र प्रबन्ध | Bichitra- Probandha

Bichitra- Probandha by रवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravendranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मा से । पू सारा भण्डार नहीं खेल देता उसे केवल जूठन देकर द्वार पर डाल रखता है। किन्तु जा सत्यु का बुलावा पाते ही चुटकी बजाकर चल देते हूँ ौर सदा श्रादर पाये हुए सुख की झ्रार एक बार फिरकर भी नहीं देखते सुख उन्हींको चाहता हे झ्रौर सुख को भी बेदी जानते हैं । जो दृद़ता के साथ सयाग कर सकते हें वेही निःशड हो कर भाग भी कर सकते हैं। जो मरना नहीं जानते उनके भाग- विललास की दी नता दुबल्ता झ्रीर घृूखितपन -- घाड़े-गाड़ी तमग्ा-चप- रास से--नद्दीं ढका जा सकता । दाग की वि्ञासशून्य कठोरता में पुरुषाथे हैं । यदि इच्छापूवक उस त्याग को दम स्वीकार करें ता निःसन्देद दम अपने को लजा से बचा सकते हैं । यह्दी दे माग हैं । एक चत्रिय का है श्रार दूसरा ब्राह्मण का । जो स्रत्यु-भय की उपेक्षा करते है प्रथ्वी का सारा सुख और ऐश्वय उन्हीं का है । जा जीवन कं सुख का तुच्छ समभत हैं उन्हों को मुक्ति का श्रानन्द मिलता है । इन दोनों मार्पो में पुरुपाथ है। प्राण देंगे यह बात कहना जैसे कठिन है सुख न चाहिए--यह कहना भी उससे कम कठिन नहीं हे । प्रथ्वी पर यदि मनुष्यत्य के गारव से सिर उठा कर चलना चाहें ते इन दानेों बातों में से एक वात श्रवश्य कहनी पड़ेंगी । या ता पुरुषाथ के साथ कह कि चाहिए ?? ओर या पुरुषाथ के साथ ही कहें कि नहीं चाहिए चाहिए ? कह कर रोवेंगे लेकिन लेने की शक्ति नहीं है नहीं चाहिए ? कह कर पड़े रहेंगे उद्योग न करेंगे-इस प्रकार के धघिक्कार को धारण करके भी जो जीते हैं उन्हें यमराज यदि दया करके इस लोक से हटा न दें ते उनके मरने के लिए कोई उपाय नहीं है ।




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