भारतीय परम्पराओं में पुरुषार्थों के औचित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन | Bhartya Parmpraon Me Purusathrno Ke Aochetya Ke
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
51 MB
कुल पष्ठ :
268
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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केवल कर्म करने का अधिकार है, फल मिलता या न मिलना कभी उसके अधिकार में नहीं |
इसलिए न तो मेरे कर्म का अमुक फल मिले, यह ध्येय मन में रखकर कभी कर्म नहीं करना
चाहिए और न कर्म करने का आग्रह होना चाहिए (गीता,2/47)। अपने को निर्लिप्त रखते हुए
कर्म करने पर भी ईश्वर को प्राप्त करना सम्भव हो सकता है ।
मनुष्य के पांच कर्म - कर्मवाद इसी मान्यता पर आधारित है कि बुरे कर्मो का
परिणाम बुरा ओर अच्छे कर्म का परिणाम अच्छा ही होता है । अतः वैयक्तिक एवं सामाजिक
हित इसी में निहित है कि मनुष्य अच्छे कर्मों को ही करे | अच्छे कर्म कौन से हे, इसका
उल्लेख धर्मग्रन्थों में नाना प्रकार से किया गया है । ये सत्कर्म बहुसंख्यक हैं परन्तु उनमें
यज्ञ, तप, दान, शौच और स्वाध्याय ये पांच विशेष प्रशंसनीय कर्म माने गए हैं | भगवान श्री
कृष्ण ने कहा है कि कर्म का आरम्भ किए बिना निष्कर्मता नहीं प्राप्त होती और न
कर्म-सन्यास से पुरूष को सिद्धि ही प्राप्त होती है (गीता,3,/4)। योगी लोक आसक्ति का
त्याग करके आत्म-शुद्धि के लिए कर्म करते हैं तथा यज्ञ, दान, और तप मनीषियों को पवित्र
करने वाले है, एेसा मत अनेक स्थानों पर प्रगट किया गया हे (गीता.18,८5) | प्रो0 विश्वनाथ
शुक्ल ने उपरोक्त पांच कर्मो का विस्तृत विवरण संकलित किया जो निम्नवत् है -
(1) यज्ञ - कर्मों में यज्ञ को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । वेद में तो यज्ञ को ईश्वर बताया.
गया है । यज्ञ निर्मित किया हुआ कर्म मनुष्य को किसी बन्धन मँ नहीं बांधता । भगवान् ने...
प्रजा के साथ ही यज्ञ की सृष्टि की । मनुष्यों को इच्छित फल यज्ञो से ही प्राप्त होते है । `
इसलिए यज्ञ म देवताओं को अर्पित किए बिना जो उन देवताओं द्वारा उपलब्ध कराए गए `
भोगो को भोगता है उसे चोर कहा गया हे (गीता 3८12) | यज्ञ से पापका नाश होता है | है
यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाला सब पापों से छूट जाता है । जो केवल अपने लिए
भोजन पकाते हैं, वे मानों साक्षात पाप का ही भोजन करते हों (गीता, 3/43)1.
(2) तप - धार्मिक कियाओं में तप के महत्व को स्वीकार कार किया गया है | आरम्भ में...
वैदिक आर्य यज्ञ को प्रधानता देते थे, परन्तु जैसे-जैसे वे लौकिक ओर पारलौकिक की
तुलना में आध्यात्मिक तत्व पर बल देने लगे, वैसे-वैसे तप का महत्व भी बढ़ता गया ` ०० नं
(शांतिपर्व,79 ,/ 17) । “स्वेच्छा से स्वीकार किया गया कष्ट जो आत्मशुद्धि अथवा किसी प्रकार. |
की सिद्धि का साधन माना जाये तप है । शुद्धि के लिये मनुष्य को तपना पड़ता है । चाहे
০১৩১ -पपव एप कप 5 १ ০০০ ৩
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