महामना श्री पंडित मदनमोहन मालवीय जी के लेख और भाषण भाग १ | Mahamana Shri Pandit Madanmohan Ji Malviya Ke Lekh Aur Bhashan Bhag-i
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
353
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( ९४ )
इसी प्रकार मानवीय चेतना तभी सयत्त द्योती है जब जाम्रत्, स्वप्न और
सुपृप्ति-शान्ति और शक्ति के लिए आपम में पिद्रोद्द न करके परस्पर भलुस्यूत
दो जाते दैं। शिय्र के मस्तक पर जो घटामियेक जिया जाता है, वाह अग्नि
द्वारा सोमपान का द्वी रुपक ह भ्रत्येक शरोर के भीतर प्रदृति की ओर से
यह घदाभिपेक दो रदा ह। हमारे भीतर प्राणाग्नि है और बह्दीं शुक्र रूपी
सोम या भघु है । सोम को अग्नि प्रतिक्षण स्रा रद्दी है। जब तक अग्नि को
सोम मिलता है, अग्नि शिव या सकुशछ रहता है। वद्दी अग्नि का अधोर रूप
हैं। जब अग्नि घार हो जाता है तव उसे ही यम पहले हैं। तभी अमृत रूप
शिष रृत्यु रूप यम द्वो जाते हैँ ।
इस प्रकार जिस सनातनघर्म थो माछवीय जी मानते ये और एकाधिक
स्तोन्न या वनों फे द्वारा उन्होंने जिसका स्वरूप इन टेखों में सामने रफ्खा
है, वह सृष्टि विद्या की द्वी परिभाषाओं पर आश्रित ६ । उसे पद्यानने के टिषए
अज्ञा का नेत्र चादिए। जिसके पास चह् आँख है वह उसे देखता है, दूसरा
नहीं (पश्यद् अक्षण्वान् नो विचेतदन््धः-ऋग्वेद, १1१६४१६ ) | एक-एक
देवता का स्वरूप खष्टिविया श्रौर आत्मविद्या का पूरा भन्य ही द। इन्दी
महामन्थों कौ समष्टि सनातनघमं ६ै। यय तो अन्यक्त या परोक्षमाव का ही
मद्व दै। अत्येक स्थूछ भूत के पीछे जो उसका प्राण तत्त्व है, बह्दी देवता है।
ऋषि लोग स्थूलभूत में आ्राण का दशन करते ये और उसी को देव को महिमा
जानकर प्रणाम करते थे। अग्नि, इन्द्र, रुद्र, शिव, मित्र, वरुण, अदिति, अस्विनी,
विषु, गणएपति-इन धनेक देवों फे रूप में सनावनघम की यारदखढ कदा गई
है। देव तत्त्व एक दे पर वद्द अनेक रूपों में कद्दा, सुना और তুলা আনা दे
देवों का न कमी अन्च हुआ, न दो सकता दै । उनके रूपो का उद्भव, विकास
और परिवर्तन इतिद्वास के अधीन द्वोवा रददता है पर जो 'एको देवः सवभूतेषु
मूढः एक एव अन्नहुषा समिद्ध” क सदधि बहधा वन्ति, श्यो देवानां
नामधा पक एवः इत्यादि वचनो के अनुसार मूलभूत एक् देव दे, वौ सत्
तत्त्व दै। वह्दी नारायण द, वदी विपु ६ । हिरण्यगम, परमेष्ठी, मदाच,
ब्रह्मा उसी की सन्ञायें हैं। खनावनधम का यद गूढ रदस्य दहे, उघके समस्त
इतिदास ओर विस्तार भँ य् वध्य জীবসীন है! _भव्येक सनातनधर्म के
दय पर इसकी दयापर खगो हुई है। मालवीय जी जिस उदाच्त सनावनधम
के व्यास्याता और अमुयायी ये, वह ऋषियों की अज्ञा का फछ है। मालवीय
जो प्राचोन ऋषियों के सच्चे प्रतिनिधि ये। डा० छमारस्वामी कष्टा करते ये
कि यद जो सनादनय् ই অহ विश्व का नित्य वस्त्वज्ञान द .{ 10507148
ए७४०००७ )। यह शब्द यथाये दे। यथद्दाँ तो धरम, दर्शन ओर आचार-इन
सबका विचिय सगम है। हक्ष विचार, आचारात्मक कमे ओर ईश्वर में भक्ति-
मवी आस्था--इन दौनों को समष्टि डी सनावनघर्म रूपी तीथराज दे ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...