शल्य - विज्ञान की पाठय - पुस्तक | Shalya Vigyan Ki Pathya Pustak Vol-i
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
694
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दल्य-चिकित्सा के सिद्धांतों की प्रस्तावना
सगम लाल
साल्य-चिकित्सा का विकास
आधुनिक काल मे दल्य-चिकित्सा (ऽप्य?) अत्यन्त उच्च स्तर तक
पहुच गई है । परन्तु ठेसा पिछली अनेक शताव्दियो मे शनं -शनै हुई उन्नति
के कारण ही सभव हुआ है ।
उपचार की कला केवल मनुष्य मे ही नही वल्कि पक्षु-पक्षियो मे भी पाई
जाती है । आदिकाल में ही मानव ने देखा कि रोगग्रस्त जन्तु अपने घावों और
चोटो को ठीक करने के लिए उन्हे चासते-चुसते है ओर उन पर एफूक मारते
दै 1 इसी प्रकार एक पैर टट जाने पर कृत्ता केवर तीन वैरो हारा ही भागता
रै, फलस्वरूप अस्थिभग वाखा पैर निर्व हो जाता है तथा उसके विरोहण
(ण्व्य) मे सहायता मिलती हि ।
शल्य-चिकित्सा की कला प्रागैतिहासिक काल से ही चली आ रही हे !
मनुष्य के फॉसिलीभूत अस्थिपजरों (0$9118०0 51061600$) में विरोहित
(40८) अस्थिभग (पवतण), सन्धिच्युति (151008001) तथा अग्रोच्छेदन
(21000121100) ঈ प्रमाण নাহ্ বাহ ই । कू तथ्य यह भी इगित करते है
कि पाषाण काल में सिरददं, मिरगी (अपस्मार) आदि रोगो के लिए मस्तिष्क
पर आपरेशन किए जाते थे ।
सर्जरी के विकास मे प्राचीन भारत का पर्याप्त हाथ रहा है । ऋग्वेद मे,
जिसे ससार का प्राचीनतम साहित्यिक ग्रथ माना जाता है कृत्रिम अगौ
(9706012] 110055) ঈ प्रयोग का वर्णन मिलता है। भारत के महाकाव्य मटा-
भारत (सन् 1000 ईसापूर्व) मे कहा गया है कि जब पितामह भीष्म युद्धक्षेत्र
मे घायल हुए तो सेवा के कुशलू सर्जनो द्वारा उनकी चिकित्सा की गई। वेदों
मे शल्य-रोगो, यहा तक कि प्रायोगिक चल्य-विज्ञान (नन पापला थ् 8पा8ण ३ ),
का भी वर्णन किया गया है । चरक और सुश्रुत (प्राचीन भारत के प्रसिद्ध
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