महादेवभाई की डायरी | Mahadev Bhai Ki Dayari

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Mahadev Bhai Ki Dayari by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about नरहरि परीख - Narhari Parikh

Add Infomation AboutNarhari Parikh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
সি दिष्टी अस्थायी संधि टोनेके वाद हुआ या, दसी तरह । रातकरो -- आधी रत्के चाद सव निश्चय दुभा, अर्विनने भिमर्नते वेनको तार देनेको कदा ओर फिर आकर बैठे । वे भी शुदास और में भी भुदास । मैने मीन तोद्य ओर कहा -- 'देखिये, में तो बिल्कुल ठंढा हो गया हूँ । और देखता हैँ कि आपकी भी जैसी ही भावना हो रही है | जिसलिओे आपसे फिर प्राथना करता हूँ, फिर कहता हूँ कि में तो लड़ाका हूँ, मुझे तो फिर भी लड़ना पढ़ सकता है। आपको भी छगता हो कि कहाँ जिस समझीतेमें फँस शये, कमचारी कोओ समझौता चाहते नहीं, वातावरण प्रतिकूल है तो समझोता कैसा! तो अव भी आप तार वापस ले लीजिये। जितना ही तो होगा कि थेन मुझे मूल कहेंगे |? तब आन्दोंने कहा -- ' नहीं, कसी कोओ बात नहीं । आपको लड़ना हो तो लड़ लेना । मगर लड़ेंगे तो वाजिबर तोर पर ही न! नहीं, नहीं, यह तो जो समझौता हो गया सो हो गया 1? आज पत्र नहीं भेजा था तत्र तक लगता था कि पत्र चला जाय तो अच्छा। मगर अब पत्र चला गया, तो भेखा लगता है कि यह क्या जिम्मेदारी सिर पर ले ली है! . . . सम्भव दे कि अछतोकि लिओे अल्ग मताधिकार तो अब नहीं रहेगा। नहीं तो यह भी हो सकता है कि मुझे छोड़ दे और फिर मरने दें]? मेंने कहा -- “छोड़ देने पर तो जिस अनशनते झितनी भारी खल्यछी मच सकती है, जिसकी जिन ले्गोको कलना भी न होगी 1” নাছুন कहा -- “ हाँ। ”? १४ वस्छममाओी सुत्रह कहने लगे ---५ जिस समय तो दो वर्ष पहले आजके दिन चण्डोला तालाब पार कर गये थे ।” ल्दाओीको दो १२-२३-२२ साल हो गये । बीचमें अंक छोठाता विष्कंभक -- खाली समय -- आ गया । वल्लभमाओ वाप्को हँसानेमें कसर नहीं रखते। आज प्रछने लगे --- ५ कितने खजूर धोझूँ ?” वाध्ूने कहा -- “ पन्द्रह > । तो बह्लममाओी बोठे -- ^ पन्द्रह और बीसमें क्या फर्क १ > वापूने कहा -- ५ तो ' दस , पर्योकि दस ओर पनरे क्या फक १४ मुदे कदने खे -- “वरयो महादेव, कैसी जेर है १ घर कोली विस्तर के -युलता था १ कमोड धोकर रोज तक्के दी कोओी रखता था १ ओर येष्ट्की हुभी रोरी, मक्खन, दूष ओर तरद तरदटकी तरकारियों !” में तो क्रिस तरह ভুত सकता था! मेरे सामने तो नासिकके जेलरेंकि चित्र अब भी ताज़ा थे, और यह बात क्षणमर भी भूलने-जैसी नहीं थी कि यहाँ जो कुछ है, सब वाधुके कारण है? ,. ओक बात पहले दिनके संवादकी रह गयी । बापूने कहा -- “यहाँ तो मुझे मंशरूकी गादी पर सुछाते हैं। तुम्हें यहाँ लायेंगे, यह मुझे आशा न थी। ९




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now