छायावाद और प्रगतिवाद | Chhayawad Aur Pragatiwaad

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Chhayawad Aur Pragatiwaad by डॉ विश्वनाथ प्रसाद - Dr Vishwanath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ छायाषाद्‌ शरोर रहस्यवाद ओर रदस्यवाद्‌ का प्रथकरण करते हुए धी सद्रुरुशरण श्रवस्थी ने लिखा ६-- ^र्दस्यवा[द्‌ का सम्बन्ध सीघे वस्तु-विधान्‌ से रहता है, अभिव्यंजन-विधान से नहीं | परन्तु छायावाद का सम्बन्ध केवल अभिन्‍यंजना की विचित्रता श्रौर दुरूद भावगम्यता से रहता है। आज की छायावादी कविता अ्रमिव्यंजन की अनेकरूपता की ही सबसे बड़ी विशेषता रखती है| वह केवल उक्ति-बेचित्य पर टिकी है ; अतण्व़ उसका छायावादी अ्भिधान सार्थक है ? १ अब हम इन मान्यताओं पर विचार करे ! डॉ० रामकुमार वर्सा ने रहस्यवाद को छायावाद के साथ अभिन्न करते हुए यह ध्यान नही दिया कि हिन्दी म आश्लुनिक रहस्यवाद के श्रवतरित होत्ते के काफी पहले एक विशिष्ट काव्य-धारा को 'छायावाद' की संशा मिल चुकी थी, और वह धारा रहस्यवादी प्रवृत्ति के प्रभाव फे बाहर आज भी अपना प्रथक्‌ अस्तित्व रखती है। अवस्थी जी ने छायावाद को रहस्यवाद से मिन्न तो माना, पर वे उसे कला-ग्रान्दोनन केरूप मदी स्वीकार कर सके [ उनके सिद्धान्त के अनुसार कठिनाई यह होती है कि यदि रहस्यात्मक अनुभूति छायावादी अ्रभिव्यंजना-प्रणाली में प्रस्तुत की जाय, तो उसे किस “वाद! के अन्तगंत रखेंगे | पर छायावाद को रहस्यवाद से भित्र सिद्ध करने, या छायावाद में अभिव्यंजना-वे चित्य के अतिरिक्त काव्य-चरदु का मी अस्तित्व मानने के लिये यह तक नहीं दिया जा सकता। उसके लिये तो यह देखना होगा कि द्विवेदी युग के अन्तिम चरण मे एक विशेष अभिव्यक्ति प्रणाली के साथ जो कविता हिन्दी म श्रायी, उसका भाव-पक्त केवल गतानुगतिक था, या किसी प्रकार नवीनता को भी प्रश्नय दे रहा था। इस प्रश्न के उत्तर में ही अघस्थी जी के इस श्रम का निराकरण है कि छ्ायावाद एक कला-आन्‍्दोलन था | प्रसाद जी और शुक्व जी की घारणाओं मे सबसे बड़ा अन्तर यह है कि एक ने छाया- वाद को रहस्यवाद से मित्र काव्य-प्रवृति के रूप मे स्वीकार किया है, तो दूसरे ने उन्हें, अर्थ की दृष्टि से ही सही, सबंथा पर्यायवाद्ी मान लिया है। काव्य- वस्तु के अतिरिक्त शेली की व्याख्या की दृष्टि से भी दोनों विद्वानों में विसंवादी स्वर ही प्रधान है । छावावाद्‌ की अमिव्यक्ति-प्रणाली के उदगम-छोतर की खोज मे प्रसादजी की दृष्टि प्राचीन संस्कृत-साहित्य-शाज््र की ओर फिरी है, तो शुक्र जी की दृष्टि आधुनिक पाथात््य काव्य-साहित्य को ओर | इस प्रकार प्रसाद जी ने यह सिद्ध करना चाहा कि छायावाद का लाक्षणिक वैचित््य हमारे यहाँ की 3, 'रहस्पवाद भौर हिन्दी में डसका स्वरूप ( “विचार-विमर्ष ); भो सद्गुरुशरण भवस्थी |




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