हिन्दू धर्म की आंख्यायिकाएँ | Hindu Dharm Ki Ankhyayikaen
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
145
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उपमन्यु १७
होकर वैठनेवष्ला आदमी जिस आद भाव से स्तुति करता है, उसकी
उपेक्षा कौन कर सकता है ? अचानक ख़न्दक़ में प्रकाश छा गया, गौर
अध्विनी कुमार आ पहुंचे ।
“उपमन्यु ! हमें क्यों बुलाया है ?”
“देव ! में अन्चा हो गया हूं । कृपा कर मुझे दृष्दि दीजिये 1”
“बस, यही काम था ? लो, यह अपूप हैं। इसे तुम खालो।
तुम्हारी आँखें तुरन्त खुल जायेगी 1
“में इसे नहीं खा सकता । इस खाने की हाय से उबरने के यत्न में
तो में आपकी कृपा का भिखारी बना हूं ; इस खाने ने म्ते मार डाला
हैँ ।” उपमन्यु ने का ।
“ब्िन्तु यह तो दवा है। यदि तुम दृष्टि चाहते हो, तो तुम्हें यह अपूप
বালা হীনা 1? ८
““मृपते दृष्टि मिल जाय ओरमं देख सक्, तो अच्छाही ह; नहींतो
कोई बात नहीं । किन्तु गुर् कौ आज्ञा के बिना अब में कुछ भी मूह में
नहीं हाल सकता । यह मेरा निश्चय है ।”
अध्विनोगुमार तनिक चिढ़कर बोले--“तुम्हारे धौम्य ने भी
अपने गुर की आज्ञा के बिना यह अपूप साया घा। पया तुम अपने
गूर से भी बढ़ गये ?
“प्रभी, यह मेरा संकत्प हैं। इस संवाल्प पा ঘাম करके में दप्टि
मही चाहता 1
कि
লেহিননা তমা गुर धौम्य के पास गये, उपमन्यु के लिए अपप साने की
আলা মাছ फी, जर् फिर खत अदूप लक्िटठाया। অহিবনাহানাতা
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थू शषा स उपमग्यु फिर इसने न्या, मौर यह संदेक से
यार লাহা।
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