हिन्दू धर्म की आंख्यायिकाएँ | Hindu Dharm Ki Ankhyayikaen

Hindu Dharam Ki Aakhyakaye by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उपमन्यु १७ होकर वैठनेवष्ला आदमी जिस आद भाव से स्तुति करता है, उसकी उपेक्षा कौन कर सकता है ? अचानक ख़न्दक़ में प्रकाश छा गया, गौर अध्विनी कुमार आ पहुंचे । “उपमन्यु ! हमें क्‍यों बुलाया है ?” “देव ! में अन्चा हो गया हूं । कृपा कर मुझे दृष्दि दीजिये 1” “बस, यही काम था ? लो, यह अपूप हैं। इसे तुम खालो। तुम्हारी आँखें तुरन्त खुल जायेगी 1 “में इसे नहीं खा सकता । इस खाने की हाय से उबरने के यत्न में तो में आपकी कृपा का भिखारी बना हूं ; इस खाने ने म्ते मार डाला हैँ ।” उपमन्यु ने का । “ब्िन्तु यह तो दवा है। यदि तुम दृष्टि चाहते हो, तो तुम्हें यह अपूप বালা হীনা 1? ८ ““मृपते दृष्टि मिल जाय ओरमं देख सक्‌, तो अच्छाही ह; नहींतो कोई बात नहीं । किन्तु गुर्‌ कौ आज्ञा के बिना अब में कुछ भी मूह में नहीं हाल सकता । यह मेरा निश्चय है ।” अध्विनोगुमार तनिक चिढ़कर बोले--“तुम्हारे धौम्य ने भी अपने गुर की आज्ञा के बिना यह अपूप साया घा। पया तुम अपने गूर से भी बढ़ गये ? “प्रभी, यह मेरा संकत्प हैं। इस संवाल्प पा ঘাম करके में दप्टि मही चाहता 1 कि লেহিননা তমা गुर धौम्य के पास गये, उपमन्यु के लिए अपप साने की আলা মাছ फी, जर्‌ फिर खत अदूप लक्िटठाया। অহিবনাহানাতা সি ঠা {१ চা চি थू शषा स उपमग्यु फिर इसने न्या, मौर यह संदेक से यार লাহা।




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