मंथन | Manthan

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Manthan  by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मानव का सत्य ७ एक प्रकार से 'न' कार की साधना की है। उन्होंने 'मैं अपने को कुचल दू गा ऐसा संकहप ठानकर कुचलने पर इतता जोर दिया है कि वे भुझ् गये हैं कि इसमें 'मैं पर भी श्रावश्यक रूप में लोर पढ़ता हैं। 'में' झुचलकर ही रहूँगा, यह ठान-ठानकर कुचलने में जो जोर लगाता है, उसका वद्द जोर असल में « “अर के सिंचन में जाता और वद्दीं से झाता है । इस प्रकार, तपस्या द्वारा झपने को कुचल्षने में ाग्रही होकर भी उच्टे झ्रपने सूचम अं को श्रर्थात्‌ में” को, सींचा श्र पोषा जाता है। जो साधना दुनिया से मुँह मोधकर उस दुनिया की उपेक्ता और विमुखता पर झ्वल्षम्वित हैं बह झन्त में सूलतः श्रहं सेवन ही व्य एक रूप दैं। जो विराट, जो मददामहिम, सब घटनाओं में घटित दो रहा दे उपकी ओर से विमुखता धारण करने से झात्मेक्य नहीं प्राप्त होगा । चीज़े बदल रही हें और उनकी श्रोर से निस्संवेदन, उनकी शभ्रोर से नितान्त तटस्थ, नितान्त झसंखग्न शोर अप्रभावित रहने की साधना शारम्भ से ही निष्फल है। व्यक्ति झपने-श्ाप में पूण नहीं है, तब सम्पूण का प्रभाव उस पर क्यों न होगा ? प्रभाव न होने देने का हृठ रखना अपने को अपूर्ण रखने का हृठ करने-जेसा हैं, जोंकि झसम्भव है। श्रादसी श्रपूर्ण रहने के लिए नहीं है, उसे पूर्णता की झोर बढ़ते ही रहना हैं। इसलिए जगदुगति से उपेक्ता-शील नहीं हुआ जा सकेगा। उससे श्रप्रभावित भी नहीं हुआ जा सकेगा । यह तो पहले देख चुके कि श्पने को स्वीकार करके उस लगदुगति से इन्कार नहीं किया जा सकता । इसी साँति यह भी स्पष्ट हुआ कि उधर से निगाह हटाकर केवल अपने ऊपर उसे केन्द्रित करके स्वयं झप्रभावित बने रहने सें भी सिद्धि नहदीं ह। तव यही मार्ग हैं ( लाचारी का नहीं, मोक्ष का ) कि हस घटनाओं को केवल स्वीकार दी न करें, प्रत्युतत उन्हे स्वयं घटित करें । क्या वास्तव के साथ ऐक्य पाना ही हमारा लच्य धर वही दमारी सिद्धि नहीं दे?




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