मानस - मुक्तिवाली | Manash Muktavali

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Manash Muktavali by गोस्वामी तुलसीदास - Goswami Tulsidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मानस -मुक्तावली । दे जिन्ह के लहै न रिपु रण ॒पीठी । नहिं लावहिं परतिय मन डोटी ॥ मंगत लहदद्॒हिं च जिन के नाहों | ते सर वर थोरे जग साहों ॥ बनालकाण्ड खुनु मुनि संतन के णुण कहऊँ । जिन्ह ते में उनके चश रहऊे ॥ पट चिक्ार जित अझनघ अकामा । झचल अकिचन झुचि सुखधघामा ॥ अमित बोघ झअनोह सित भोगी । सत्यसन्ध कवि काचिंद येगो ॥ सावधान मानद॒ सद होना । घीर भक्ति पथ परम प्रचोना ॥ णुणागार ससार दुख, रहित बिगत संदेह । तजि सस चरण सरोज प्रिय, जिन्द के देह न रोह !! निज णुण श्रवण खुनत सकुचाहों । परणुण सुनत अधिक हर्पाहों ॥ सम शीतल नि व्यागहिं नीती । सरल स्वसाव सबहि सन प्रीती ॥ जप तप घ्त दम संयम नेमा । णुरू गोविद चिप्र पद प्रेसा ॥ श्रट्ठा क्षमा. मइत्री दाया । मुद्ता सम पद प्रीति झमाया ॥ विरति विवेक दिनय बिज्ञाना | बोध यथारथ वेद पुराना ॥ दम्भ मात मद करहि न काऊ | भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥ यावाहि खुनहं सदा मम लोला । हेतु रहित परहित रत शीला ॥ उु मुनि साघुन के गुण जेते । कहिं न सकहिं शारद श्रुति तेते ॥ आारण्यक्राण्ड उमा सन्त कर इहै बड़ाई। मन्द करत जा करइ भलाई ॥ सुन्द्रकाण्ठ




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