रत्न सार कुमार | Ratnsarkumar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
60
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहला परिच्छेद । ६
तापस-कुमार बड़े स्ोरसे चित्लाने लगा।--“भाई” कहाँ गये *
शोघप्र आकर मेरो रक्षा करो”
तापस-कुमारको यद वात सुनकर रत्नसार यह कहता
हुआ उसके पोछे-पोछे दौड़ा, कि अरे ! मेरे जोवन-खरूप
तापसकुमारको यह भन्धड़ कहाँ लिये जारहा है। कुछ दूर
जानेपर उस तोतेने कद्दा,--*कुमार ! वह तापसकुमार तो
अब कहों दिखाई नहीं देता। न मालूम हवा उसे कहाँ
उड़ा लेगई। अबतक तो वह लाखों योजनको दूरो पर पहुँच
गया ह्ोगा। इस लिये कुमार अवतो तुम पोछे लौट चलो ।
यह सुन रत्नसार नानाप्रकारसे विलाप करता इआ पोछे
लौट चला। थोड़ो दूर जाते-न-जाते उस तोतेने कहा,--
“कुम्तार | वह तापसकुमार पुरुष नहों था। मेरे जानती
कोई स्रो विव्या-बलद्े पुरुषका वैष धारण किये ष्धी।
बातोंसे, रड्ः ठड़से, चाल-चलनसे, आँखोंको चितवनसे वह
समीरो मालूम पडतो थो । यदह सारा काण्ड़ किसो देव,
दानव या विद्याघरने किया है। ज्योंहो वह लड़को उन दुष्ट
देवके पंजेंसे छुटेगो, त्योंही तुम्हारे साथ विवाह कर लेमो;
क्योंकि कोई कल्पहक्षकों छोड़कर अन्य हक्षका सेवन कब कर
सकता हे?
तोबेकी यह बात सुन इष्टदेवताकों भांवि उस तापसकु-
मारका स्मरण करता भ्रा रलसार श्नागे बढ़ा । इ दूरपर
उसने वनमेंही एक ऊँचे तोरणों और ध्वजार्रोसे भोभिव
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