रत्न सार कुमार | Ratnsarkumar

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Ratnsarkumar by सुमति मुनि - Sumati Muni

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला परिच्छेद । ६ तापस-कुमार बड़े स्ोरसे चित्लाने लगा।--“भाई” कहाँ गये * शोघप्र आकर मेरो रक्षा करो” तापस-कुमारको यद वात सुनकर रत्नसार यह कहता हुआ उसके पोछे-पोछे दौड़ा, कि अरे ! मेरे जोवन-खरूप तापसकुमारको यह भन्धड़ कहाँ लिये जारहा है। कुछ दूर जानेपर उस तोतेने कद्दा,--*कुमार ! वह तापसकुमार तो अब कहों दिखाई नहीं देता। न मालूम हवा उसे कहाँ उड़ा लेगई। अबतक तो वह लाखों योजनको दूरो पर पहुँच गया ह्ोगा। इस लिये कुमार अवतो तुम पोछे लौट चलो । यह सुन रत्नसार नानाप्रकारसे विलाप करता इआ पोछे लौट चला। थोड़ो दूर जाते-न-जाते उस तोतेने कहा,-- “कुम्तार | वह तापसकुमार पुरुष नहों था। मेरे जानती कोई स्रो विव्या-बलद्े पुरुषका वैष धारण किये ष्धी। बातोंसे, रड्ः ठड़से, चाल-चलनसे, आँखोंको चितवनसे वह समीरो मालूम पडतो थो । यदह सारा काण्ड़ किसो देव, दानव या विद्याघरने किया है। ज्योंहो वह लड़को उन दुष्ट देवके पंजेंसे छुटेगो, त्योंही तुम्हारे साथ विवाह कर लेमो; क्योंकि कोई कल्पहक्षकों छोड़कर अन्य हक्षका सेवन कब कर सकता हे? तोबेकी यह बात सुन इष्टदेवताकों भांवि उस तापसकु- मारका स्मरण करता भ्रा रलसार श्नागे बढ़ा । इ दूरपर उसने वनमेंही एक ऊँचे तोरणों और ध्वजार्रोसे भोभिव २




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