आचार्य पदुमनार रचित नालडियार | Acharya Padumanaar Rachit Naaldiyar

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Acharya Padumanaar Rachit Naaldiyar  by विनायसागर - Vinaysagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` प्रस्तावना | ঃ | =. ऋ - जैन परम्परा में सुभाषित/सूक्तियां सर्वज्ञ तीर्थकर के उपदेशों को संगृहीत कर जैन आगमों की रचना हुई है। सर्वप्राणिहितकारी अनुशासन से पूर्ण 3+ आगमों में विविध शिक्षाएं/नीतियां पर्याप्त मात्रा में हैं। इन आगम-ग्रन्थों तथा इनके विविध व्याख्या-साहित्य (टीका, माष्य, चूर्णि, निर्युक्ति आदि) में प्रचुर सूक्ति-कण बिखरे पड़े हैं।. जैनाचार्यों द्वारा संस्कृत-प्राकृत आदि भाषाओं में स्वतन्त्र काव्य ग्रन्थों आदि का निमणि भी प्रचुर मात्रा में किया गया है, उनमें भी पर्यप्ति सूक्त्ियो/सुभाषितों आदि का भण्डार है। जैनाचार्यो ने स्वकल्याण के साथ-साथ प्र-कंल्याण को मी यथोचित सम्मान दिया है। पर-कल्याण की दृष्टि से प्रमुख साधन, इनकी दृष्टि में, धर्मोपिदेश/सन्माग्दिशन रहा है ।35 काव्य-रचना में मी उनकी दृष्टि धममनुबन्धिनी कविता-रचना की ओर अभिमुख रही है 136 उनके विचार में वही रचना शक्र हो सकती है जो प्राणियों के रागद्रेषादि मनोविकायों का उपशमन करे। 37 उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में जैन परम्परा के ग्रन्थों/शास्त्रों/कृतियों में सुभाषितों/सूक्तियों/नीतिवाक्यों/उद्बोधक वन्नं को अत्यधिक मात्रा में स्थान प्राप्त हुआ है। , बार्ईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि के समय का एकं प्रसंग, जो जैनागम में चर्चित है, यहां उल्लेखनीय है। अर्ष्टिनेमि के लघुभ्राता रथनेमि मुनि अवस्था में रैवतक पर्वत की गुफा में ध्यानस्य .थे। राजीमती साध्वी भी अपनी सहृवर्तिनी . साध्वियों के साथ वहां आसपास विचरण कर रही थीं। भीषण वर्षा व तूफान मेवे अपनी सहवर्तिनी साध्नियो से बिच्ुड कर पानी से भीगे वस्त्रों को सुखाने के उद्देश्य से एक गुफा में प्रविष्ट हुई। उन्होंने कपड़े उतारे और सुखाने के लिए फैला दिए। संयोरवश रथनेमि भी उसी गुफा में साधनारत थे।. रथनेमि की दृष्टि सहसा जब राजीमती की सौन्दर्यमय देहयष्टि पर पड़ी तो मन की दुर्बलता ने उन्हें आ घेरा - और वे राजीमती से काम-याचना करने लगे। राजीमती को शील-रक्षा के लिए कुछ न सूझा, वे रथनेमि को प्रबोधक वाक्य/सुभाषित सुनाने लगी, जिनसे सयम-आचरण की प्रेरणा प्राप्त होती थी! उन्होने कहा-“अपयश के कामुकं पुरुष धिक्कार है तुम्हें, जो तुम बमन (त्याग) किए हुए काम-भोगों को फिर ग्रहण करना चाह रहे हो। इससे तो बेहतर है, मर जाओ। क्रोध, मान, माया व लोभ का निग्रह कर, इन्द्रियों को अपने अधीन कर, अपने मप का उद्धार (उपसंहार) कर , ॐादि आदि। अगम में वर्णित है किं उक्त सुभाषित को सुनकर रथनेमि पर मानों अंकुश लग गया और वे धर्म में तुरन्त स्थिर हौ गए 138 राजीमती के वे सुभाषित “उत्तराध्ययन! सूत्र (22वें अध्ययन) में संकलित. हैं, जो संयमग्रष्ट किसी भी व्यक्ति के लिए उद्बोधक हो सकते हैं। जैन पुराणों में भी सूक्तियों की प्रचुर मान्ना दृष्टिगाचर होती है। आचार्य ' जिनसेन रचित आदिपुराण में स्वयं ग्रन्थकार का कथन हैं कि जिस प्रकार समुद्र में




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