योग बिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैनयोग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन | Yog Bindu Ke Pariprekshya Main Jainyog Sadhna Ka Samikshatmak Adhyyan

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Yog Bindu Ke Pariprekshya Main Jainyog Sadhna Ka Samikshatmak Adhyyan  by सूक्त मुनि शास्त्री - Sukt Muni Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(हां) का आत्म-विशुद्धि के परम कारण रूप भावतप में परिणमन का हेतु है। ध्येय विहीन जीवन व्यथं क्रिया स्वरूप है। ध्येय विहीन साधक की तुलना विवेक मातंण्ड में गधे के साथ की गई है? | जैसे गधा भी धूल से लथपथ रहता है, सदा सर्दी-गर्मी सहन करता है, पर उसका यह घूल में लोटना एवं सर्दी-गमीं सहना व्यथं तथा उष्य विहीन होता है, वैसे ही जिस साधक का संकल्प स्पष्ट नहीं है तब उसका धूल में जीवन व्यतीत करना तेथा शारीरिक कष्टों को सहन करना केवल बाह्य आडम्बर मत्र है। उससे अन्तरशुद्धि रूप महत्‌ लाभ उपलब्ध नहीं हो सकता । अतः किसी भी कार्य मे संलग्न होने से पटले उसके उद्य के प्रति स्पष्ट दृष्टि होना आवश्यक है। जीवन कोई न कोई ध्येय युक्त अवश्य ही होना चाहिए भौर केवल ध्येय युक्त ही नहीं, ध्येय भी उच्च होना अवश्यक है, अन्यथा विपरीत ध्येय जन्य परिणाम भा विपरीत ही होगा । भारतीय संस्कृति का उच्चतमध्येय है मोक्ष । संसार दुःख से विमुक्त होना ही परम पुरुषाथं है चाहे वह्‌ तत्वज्ञान हो, आचार हो, काव्य हो याकि नाटक मात्र, किन्तु काम विषयक कामशास्त्र का अन्तिम ध्येय चतुथं पुरुषाथं मोक्ष ही है ५ इस कारण भारतीय संस्कृति को आध्यात्मिक संस्कृति के नाम से अभिहित किया गया है । भारतीय विचारकों का चिन्तन बहुमुखी रहा है । उन्होने जीवन के आवश्यक पहलुओं पर गहन व तीक्र अनुभूति पूर्ण तथ्यों को उद्घाटित किया है। शारीरिक एवं पदाथिक आयामो से उपरत एक ऐसा भी मायाम है जो बौद्धिक तके एवं चर्चाओं से परे है। जो केवल अनुभव जन्य है ओर उस अनुभव का जनक है-योग । योग एक ब्रह्मविद्या है। उसकी गति क्षर से अक्षर की ओर है। योग कोई सम्प्रदाय या दर्शन विशेष न होकर जीवन के अन्तर रहस्य की प्राप्ति की सहज प्रक्रिया है। योग का कार्य दर्शनशस्त्र की तरह सिद्धान्तो का प्रतिपादन करना नहीं वरन्‌ अन्तस्‌ अनुमूतियों का जागरण है । मोक्ष रूपी लक्ष्य सिद्धि का प्रघान व्यवधान है--मन और प्रधान सहयोगी भी है-मन। कहा भी गया है-भन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध सोक्षयोःः° । व्यास ने भी कहा है--




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