आध्यात्मिक आलोक | Aadhyatmik Aalok
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
600
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आध्यात्मिक आलोक नरम. ৯১৬
. गांधीजी के जीवन में साधना, व्रत भविति, सादी ओर सुचरित्र आदि का
समावेश उनकी माताजी के संस्कार का ही परिणाम कहा जा सकता है | पश्चात्य
प्रभाव से प्रभावित व्यक्ति आध्यात्मिकता के विरोध में त्क उपस्थित करते है किन्तु
वैसी तक-भावना बैरिस्टर गांधी के मन को प्रभावित नहीं कर सकी। कारण स्पष्ट है
कि भारतीय संस्कृति मे पती जननी का सुसंस्कार पाश्चात्य शिक्षा जन्य बुराइयों को
दुर रखने में सर्वथा सफल रहा। यदि भोजन सालक ओर मन दृढ़ न हो तो कोई
भी तरुण हर्गिज पाश्यात्य रमंणियों से प्रभावित हुए बिना स्वदेश नहीं लौट सकता
< परमे मातापिता का जैसा व्यवहार होता है, प्रेम या विरोध के जो
वातावरण दृष्टिगोचर होते है सन्तान के मन पर उसका प्रभाव अवश्य पड़ता है,
इसीलिये बच्चे को जैसा बनाना चाहते हैं, दम्पत्ति को स्वयं वैसा बनना होगा। यदि
माता-पिता स्वयं विनयशील न होंगे तो बच्चे कैसे विनयशील होंगे ? यदि पिता स्वयं
की बुढ़िया मां से ठीक व्यवहार नहीं करे तो उसके बच्चे बड़े होने पर मांन्बाप से
विनय का व्यवहार कैसे रवखेंगे ? बहुत बार लोग शिकायत करते हैं कि महाराज |
बच्चों में विनय नहीं रहा, ये लोग बड़ों की बात नहीं मानते । वास्तव में इसके लिये
माता-पिता भी जिम्मेदार हैं। मांबाप शीलवान एवं विनम्र ह तो उनके बच्चे भी वैसे
ही बनेंगे। बचपन में डाला गया संस्कार अमिठ होता है और यह दायित्व पूर्ण रूप
से माता-पिता पर अवलम्बित रहता है। नीति भी कहती है- |
“यत्रवे भाजने लग्नः सत्कारो नान्यथा भवेत् 1“
शिक्षा का प्रभावं -
जीवन-निर्माण में दूसरी छाप शिक्षा की भी पड़ती है। माता-पिता की
वात्सल्यमयी गोद छोड़ने के बाद बच्चे शिक्षालय की शरण में जाते हैं और वहां जैसी
शिक्षा प्राप्त होती है, उसके अनुकूल अपने आचरण का निर्माण करते हैं। मगर देखने
से पता चलता है कि आज की शिक्षा जीवनोपयोगी होते हुए भी, व्यावहारिकता और
आध्यात्मिकता से कोसों दूर है । आज के अध्यापक का जितना ध्यान, शरीर; कपड़े,
नाखून, दाति आदि की बाह्य स्वच्छता की ओर जाता है, उतना उनकी चारित्निक
उन्नति की ओर नहीं जाता। बाह्य स्वास्थ्य जितना आवश्यक समझा जा रहा है,
अतंरग भी उतना ही आवश्यक समझा जाना चाहिये। अंतर में यदि सत्यनसदाचार और
सुनीति का तेज नहीं है तो बाहरी चमक-दमक सब बेकार साबित होगी। सही दृष्टि से
तो स्वस्थ मन और स्वस्थ तन एक दूसरे के पूरक व सहायक हैं। आज ग्रामीण
बालक धूलि भरे बदन होते हुए भी नगर किशोरों से अधिक हष्टपुष्ट क्यो दीख
पड़ते हैं ? मानना होगा कि इसका प्रमुख कारण उनका आहार-विहार व सदाचार ही
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