मकरध्वजपराजय | Makardhwajparajay

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Makardhwajparajay by गजाधरलालजी - Gajadharlal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पथम परिच्छेद । १३: रति-सुनिये कृपानाथ ! मेँ खुनाती दव- इसी पृरथ्वीपर एक चैप( नामकी नगरी है जो नाना मका रके उत्सवेसे व्याप्त, उत्तमोत्तम जिनेद्र भगवानके म॑दिरोसे मंडित, उत्तम धर्मके आचरण करनेवाले आरवकोंसे परिपूर्ण, चारोंओर स- घन और हरी भरी वृक्षराजिसे भूषित, समस्त भूमिखेडोपर सानंद विहार करती हुईं उत्तमोत्तम रमाणियोंसे रमणीक, आह्मण क्षत्रियः वेश्य तीनों वर्णोके शुणोमें प्रेम करनेवाले शूद्वजनोंसे युक्त, अनेक: देशोंसे आये हुये विदेशी छात्रों और निर्मल ज्ञानके धारक सैकडों- उपाध्यायोंसे अलंकृत एवं अनेक पुरवासी रमणियोंके मुखरूपी चंद्रमाकी मनोहर चांदनीसे देदीप्यमान वसुधारूपी मनोहर मा- लाको धारण करनेवाली है | उसी चंपापुरीमं एक हेमसेन नामके मुनि किसी जिनालयमें उम्र तपश्चरण करते हुये निवास करते थे। कुछ समयके बाद जव कि उनका मरणकारु समीप रह गया तब पुरवासी शरावरकोने जिनालयम आकर जनेक उत्तमोत्तम पुष्प भोर फलस मग- নান जिनद्रकी आराधना पूजा की । पूजाके बाद प्रतिमाके सामने पका हुआ मनोहर मिष्ट सुगंधिसे व्याप्त एक खरबूजे का फर चडाया । फलकी मनोहर स॒गंधिसे मुनिराज हेमसेनका चित्त चलित होगया और “ वह मुझे कैसे प्राप्त हो › इस तीन आर्त्यानसे मरकर पे उसी खरवूजेमं जाकर छृमि हुये । उसी जिनारयमे अवधिज्ञानके धारक एक मुनिराज चैद्सेन भी विराजमान ये । मुनि देमसेनका शरीर संस्कार पृणैकर दूसरे दिन जब श्रावक जिनार्यमे आये तो वे मुभिराज चंद्रसेनसे. विनम्र हो यह पूंछने ढंगे- |




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