हिंदी की प्रगतिवादी कविता | Hindi Ki Pragativadi Kavita

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दी की ध्रगातवादी कविता | १७ धिद्वानो के विभिन्न दृष्टिकोणों की समीक्षा कर इस विवाद का निराकरण कर लेना आवश्यक प्रत्तीत होता है । ऐसे कोई भी महान कृति युग-विशेष के लिए प्रगतिशील दृष्टिकौण ही लेकर उपस्थित होती है । किन्तु वही आगे चलकर युग की भ्रगत्ति के साथ मेल बिठाने में असमर्थ हो जाती हैं। इस दृष्टि से तुलली का रामचरितमानस भी मध्यकालीन भारत की प्रगतिशील रचना ही मानी जाएगी। लेकिन हिन्दी में छायावाद-युग के पश्चात्‌ समाजवाद के सम्पर्क से जो साहित्यिक प्रवृत्ति देखने को मिली, उसे लोगों ने 'प्रगतिशील' और प्रगतिवाद! कहकर थुकारना प्रारम्भ किया 1 लेकिन कुठ विद्वानों ने प्रगतिवाद को मूलतः मार्क्सवाद से सम्बन्धित बतलाया जबकि प्रगतिशील उनकी চি में मार्कसवादी के अतिरिक्त वे भी कहला सकते है जिनकी रचनाओ में मानवीय चेतना को व्यापक तथा गम्भीर बनाने के गुण वर्तमान है। श्रौ धिवदान मिह्‌ चौहान' के अनुसार अ्रयतिशील' और (प्रयतिवाद' के बीच अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। उनके अनुसार 'प्रयतिवाद' और “प्रगतिशील' में भेद है, यह स्पष्ट हो जाना चाहिए; भन्यया गलत शब्दौ का प्रचलन जारी रहेगा, भाप कहेंगे कुछ और लोग समझेगे कुछ । प्रगतिशील कविता का जव प्रश्न उठता है, तो उसके पीछे किसी विशेष दार्शनिक वाद कौ मान्यता का आग्रह नही क्रिया जा सकता । एक प्रगतिशोल कवि गांधीवादी भी हो सकता है, मार्क्सवादी भी और देत-अद्वेतवादी भो। मेरा अर्थ है, आज भी जो साहित्य पाठक को स्वय प्रेरणायें देता है, मनो-विकृतियों को उभार कर व्यक्ति को असामाजिक और मानव-द्रोही नही वबाता, जीवन-संग्राम में आगे बढ़ने का बल ओर साहस देता है और मनुष्य की चेतना को--गरहरा, व्यापके ओर मानवीय बनाता है, हिंसा और द्वेष को नहीं बढाता और जी वास्तव में जोवन की मासिक और सारगर्भित स्थितियों का चित्रण करता है अर्थात्‌ जिसमे कल्ा-सौषप्ठव और गहराई है, वह सब प्रगतिशील ही तो है।' (साहित्य सन्देश, प्रगतिवाद का प्रवृत्ति-निरूपण, अंक ७-८, जनवरी-फरवर्री १६५४, पृष्ठ संख्या ३) “कभी वह प्रयतिवाद को सोन्दर्य-शास्त्र सम्बन्धी मार्क्सवादी दृष्टिकोण मानते हैं और कभी लिखते हैं कि “““'सत्य यह है कि प्रगतिवाद एक विशेष जीवन- दर्शन ({भावर्सवाद) या दृष्टिकोण का नाम है । इस जीवन-दर्शन या दृष्टिकोण को भानने-अपनाने वाले जनेक लेखक, कवि, कयाकार, नाटयकार ओर आलोचक है। लेकिन उनकी रचनाओं मे न्यूनाधिक दप्टिसाभ्य पाकर हौ उनकी कविता कौ भरगरतिवाद' मौ षदा कलना भ्रामक होया ।




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