Book Image : मणिभद्र  - Manibhadra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about विभिन्न लेखक - Various Authors

Add Infomation AboutVarious Authors

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
११ भाज जो सारा संसार दुःखी है, आथिक विषमता फैली हुई है, युद्ध के बादल मंडरा रहे हैं, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का विरोध कर रहा है, समाज में, परिवार में और राष्ट्र में जो हाह्याकार चारों ओर सुनाई पड़ता है, मात्र इसी लोमवृत्ति का परिणाम है। , , मनुष्य वासनाभों का गुलाम होता है, वह दूसरों को भी इनका गुलाम बना देता है । जिसके पाप्त सम्पत्ति और सत्ता ने हो, वह उसे पशु-तुल्य समभता है । अन्याय और हिंसा से जो चीजें इकट्ठी की जाती है, उनसे हमारी बुद्धि ही नहीं बिगड़ती, किन्तु जिसके पास भी वे जाती है उसकी बुद्धि भी बिगड़ जाती है, लाभ तो उनसे छुछ द्वोता ही नहीं है । माज भूख की समस्या वड़ी विकट है । लाखों लोगों को भन्न मिल नही रहाहै। उसका कारण अनावश्यक संचयवत्ति ही है। यदि सभी मनुष्य अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार ही वस्तुओं का संचय करें और अनावश्यक संग्रह को समाज के उन दूसरे व्यक्तियों को सौप दें, जिमको उनकी आवश्यकता है तो आज दुनिया में जितनी अशांति मची हुई है उतनी न रहे, भौर सम्पत्ति के बंटवारे का जो प्रश्त आज दुनिया के सामने उपस्थित है, वह बिना किसीं कानून के स्वयं ही बहुत कुछ प्रंशों में हुल हो जाये । आज के गरीब भारत का प्रश्न इतता विकट है कि गांव क्रा एक व्यक्ति बीमार होता है तो वह एक रोज की भी दवा नही ले सकता है। दवा ले तो पैसा कहाँ और भाराम करे तो खावे क्या ? आज इन्ही गांवों पर सारा हिन्दुस्तान निम रहा है वे सबको खिला-खिलाकर जीवनदान देते है, पर क्या उनको भी कोई जीवनदान देता हैं ? आज सारी दुनिया में ही विपमता ने अपना घर कर लिया है | भाज एक तरफ तो एक मानव मेवा-मिष्ठान्न खाता है, पर दूसरे ओर दूसरे को चने भी खाने को नही मिल रहे हैं । परिग्रह इन पापों की जड़ है । जब तक जड़ को उखाड़ा नहीं जाएगा, तब तक डाल फूल: पत्त को उखाड़ा नहीं जा सकता है । श्रत: हर एक मनुष्य को परिग्रह पर सर्वप्रथम नियन्त्रण करना बाहिये। तभी वह दूसरे पापो से छुठकारा पा सकता है। महाराष्ट्र के सन्‍्त तुकाराम मे अपरिग्रह सम्बन्ध में कितना अच्छा कहा है-“तुका म्हणें घन आम्हां गोर्मांसा समान! आवश्यकता से अधिक घन गोमाँस की तरह त्यागता चाहिये । भगवान महावीर ने कहा है--महापरिग्रही को धर्म का स्पर्श नहीं ट्टोता । अठारह पापों में परिग्रह बड़ा पाप है । अन्य सत्रह पाप करने वाला तो उनका फल स्वयं ही भोगता है और अपने साथहीउन प्षोंका লীক্ষাত जाता है. परच्तु परिग्रह पापका सेवन करने वाला अपने सिर पर तो इसका बोझा ले जाता ही है, पर मरने के बाद अपनी संतानों के लिये भी उसका पाप छोड़ जाता है। अतः परिग्रह के प्रति मादरभाव होता ही बनर्थ का मूल है । यदि यह सोचा जाए कि प्रामाणिकता से पैसा इकट्ठा करने में क्‍या पाप है ? यह ध्च है कि प्रामाशिकता से पैसा पेदा करने में अतीति के पाप से बचा जा सकता है, परन्तु परिग्रह के पाप से नहीं बचा जा सकता है। अतः प्रामाणिकता श्रोर सत्य का आश्रय लेकर भी मावश्यकता से अधिक रखना परिग्रह ह्वी है। जड़ वस्तुओं के अधिक संग्रह से मनुष्य की आत्मा दब बाती है कौर उसके विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, अतः आत्म-विकास के लिये अपरिग्रहव्रत की विशेष आवश्यकता है । सुक्ष्महष्टि से ज्ञात होता है कि परिग्रह बाह्य जगत का पदार्थ नहीं, किन्तु अन्तर्जगत का एक तत्त्व है | वहू एक विचार है, पर शुद्ध नही, मलिन विचार है उसे मनका विकार भी कह सकते हैं ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now