श्री भगवत दर्शन खण्ड ९१ | Shri Bhagwat Darshan [ Khand - 91 ]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११) पर मी जनता का स्नेह भाजन था, किन्तु अब तक पकड़ा नहीं गया, यही मेरे लिये दुःख की बात थी। समय की चलिद्दारी तो देखिये। जिस जेल का नाम सुनते ही बड़े-बड़े लोग भयभीत हो जाते हैं । हम किसी प्रकार जेल के फाटक के भीतर न जाये, हमारे दाथों में दथकड़ी न पड़े, इसके लिये लोग लाखों रुपये व्यय करते थे । आज हम उंसी के लिये परम उत्सुक हो रहे हैं, किस प्रकार हमारे हाथों में हथकड़ियाँ पढ़ें, कैसे हम जेल जा सके इसी के लिये व्याकुल थे । अन्त में भगवान्‌ ने मेरी प्राथना सुन ली । एक दिन मैं टहलने जा रहा था, सायंकाल का समय था, नगर के बाहर पुलिस की चोकी थी। वहाँ एक पुलिस का अधि- कारी बैठा था, उसने बड़े आदर पूर्वक मुझे घुलाया। और बोला--“अ्रह्मचारी जी ! तनिक थाने तक चलिये |” मैंने बड़ी उत्सुकता से पूछा--क्या मुझे पकड़ने का आदेश पत्र (वारंट) है क्या ? उतने कदा--“नही, चलिये श्रापसे कु बातें करनी है |”? मैं तो उधार खाये ही बैठा था, जैसा था, बैसा ही चला गया यास्तव में मेरे नाम पकड़ने का आदेश पत्र नहीं था। धारा १०८ को बिज्नप्ति थी। मुझसे साक्ष्य द्रव्य (जमानत) बेयक्तिक विश्वास चचन (मुचलके) माँगे गये थे । न देने पर धृत-पकड़ने-का आदेश था। उन दिनों अभियोग में निरपराधता प्रकट करना साक्ष्य ब्रब्यादि न देने का आदेश था| अतः मुमे वहां थाने में रख लिया, विद्यत की भाँति पूरे नगर में यह समाचार फेल गया। सदत पुरुषों ने आकर थाने को घेर लिया। दरोगा वड़ा उदार था। उसकी पस्नी चढ़ी सत्ती साध्वी और स्वातन्त्र संग्राम से सहालु- ' भूति रखने वाली साधु জন্বী पर श्रद्धा रखने वाली थी ।




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