चुल्लू भर पानी | Chullu Bhar Pani

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Chullu Bhar Pani by सत्यप्रकाश - Satyaprakash

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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इन अंतिम क्षणों में मैंने यह सौगंध उठायी है कि मैं आपसे सच कहूंगा। झूठ नहीं बोलूंगा और इसलिए मैं यह स्वीकारता हूं कि हमने विदेशी कमीशन खाया है। एक बार नहीं, कई बार खाया है। छोटा नहीं, मोटा खाया है। लेकिन मैं पूछता हूं इसमें हमने क्या बुरा किया है? क्या गलत किया है? देश का माल विदेशों में न चला जाये इसलिए जितना बन पड़ा कमीशन काट-काटकर जाने से बचा लिया। हमने अपने देशवासियों से तो कमीशन नहीं खाया। अगर विदेशियों से कमीशन खाया तो इसमें अपने देशवासियों का कया बिगड़ा। अपने देश में तो कुछ आया ही। कुछ गया तो नहीं। मेरी समझ में यह आज तक नहीं आया कि हम जो काम देशहित में भी करते हैं उसमें भी कुछ विरोधी लोग बुराइयां क्‍यों दढूंढ़ने लगते हैं।” भीड़ अवाक्‌ थी। नेताजी की स्वीकारोक्ति अपने बलिष्ठ तर्को से : भीड़ के संदेहों का गला दबा रही थी। भीड़ यह तर्क समझने के लिए विवश हो रही थी कि वह नाहक ही विदेशी कमीशनों को घोटाला समझे बैठी थी। अरे भाई, कमीशन तो मिला ही है न, देश से बाहर तो नहीं गया। अब वह चाहे देश को मिले, देश की जनता को मिले या देश के नेता को मिले। इससे क्या ज्यादा फर्क पड़ता है। नेताजी ने एक सांस लेकर पुनः प्रारंभ किया, “अब यह कितनी गलत बात है कि हमारा न्याय न्यायाधीश करें, हम भी न्यायालयों से ही न्याय प्राप्त करे। अरे, हम तो हर पांच साल बाद जनता के न्यायालय में जाते है। उससे न्याय प्राप्त करते हैं। वह कहती है तो हम सरकार बनाते है । वह निर्णय देती हे तो हम उस पर शासन करते हं । अब यह कहां तक सही है कि हमारे ही न्यायालय, हमारे ही नियुक्त किये गये न्यायाधीश हमारा न्याय करने लगे । भई, जब जनता के न्यायालय नै पांच साल को सत्ता की बागडोर हमारे हाथों में सौप दी तो फिर बीच में यह न्यायालयों की रोक-टोक क्यो । हम पाच साल स्याह करं या सफेद करे । यह रोक-टोक तो नाकाविले बदश्ति दो रही है। ऐसे में, हम सब कुछ छोड़-छाड़कर, डूब न मरें तो क्या करें!” भीड़ स्तब्ध हो सुन रही थी। नेताजी ने फिर हुंकारा, “देखिये, हम जन-प्रतिनिधि हैं। आप 16 / चुल्लू भर पानी




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