समकालीन हिन्दी नाटक और रंगमंच | Samakaleen Hindi Natak Aur Rangmanch
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
198
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समकालीन हिन्दी नाटक {1 १५
৬1
परम्परागत सामाजिक मूल्यों पर प्रश्न-चिन्ह लगाने तया नर-तारी अथवा
पति-पत्नी के काम-सम्बन्धों के बदलते हुए स्वरूप को नये नादूय-शिल्प में
प्रस्तुत करने वाले डॉ० लाल के नाटकों में करफ्यू का विशेष महत्त्व है।
इसमें दंगे-फसाद के कारण करफ्यू लगे शहर के माध्यम से वौद्धिक-धारीरिक
और मानसिक बर्जनाओं से घिरे-्वंधे मानव-जीवन की सूक्ष्म-चासद-स्थितियों
को उजागर करने का प्रयास किया गया हैं। नाटककार ने स्त्री-पुरुष के पार-
स्परिक सम्बन्धों के संदर्भ में परम्परागत नैतिक मूल्यों पर निर्मम प्रहार करके
नैतिकता के प्रकृत-्लोत की खोज में तमाम अवरोध (मुखौटे) तोड़कर व्यक्ति को
आत्म-साक्षात्कार की स्थिति में डाल दिया है; जहा व्यक्ति के पास स्वयं को
अपने सही या वास्तव रूप में पहचानने और पहचान कर उसे स्वीकारने के
अतिरिक्त और विकल्प नहीं रह जाता ।
गौतम-मनीपा और सजय-कविता यानी मर्द-औरत के दो अलग-अलग
जोड किस प्रकार परिस्थितिवश (करफ्यू- के कारण) रात भर साथ-साथ रहने
को विवश होते हैं और कैसे एक दूसरे के सान्निष्य से अपनी मान्यताओं,
सीमाओं, संस्कारों, शर्तों और जकड़नो के भीतरी करफ्यू से मुक्त होते है--
यह स्थिति अत्यन्त उत्तेनक और नाटकीय है। इसी स्थिति के माध्यम से नाठक-
कार ने औरत-मर्द के आपसी रिश्ते की बुनियाद की तलाश की है 1
जहां तक इस गहत सम्भावनापूर्ण वस्तु को नाटक में ढालने की बात है,
करपयू के दो दृश्यों का कसाव और संरचना में पिरोया हुआ चुस्त नाटक
दर्शक-पाठक को पूरी तरह না रखने में समर्य है। इन दृश्यो की भाषा और
संवाद स्थिति और पात्रों से उपजे है और हिन्दी नाटक की उपलब्धि कहे जा सकते
है। परन्तु तीसरे, चौथे और पांचवें दृश्य में नाटक बिखरता चला जाता है। सवाद
नाठककार द्वारा निर्दिष्ट होने लगते हैं और पात्र नाटक से अलग धरातल पर खडे
होकर साहित्यिक, राजनीतिक, नाटक और जीवन, हिसा और अपराध तथा जीवन,
सत्य, नैतिकता जैसे अनेक गम्भीर विधयों पर बहस करने लगते है । अपने सीमित
व्यक्तिगत अनुभवों का सामान्यीकरण करके वड़ी-बड़ी दार्शनिक उक्तियो से एक
दूसरे को (या शायद दर्शक-पाठक को) प्रभावित करने का निरर्थक प्रयास करते
ते हैं । अन्त में मोमजत्तियाँ जलाकर सबका मत्र गाने लगना भी मूल नाटक
पर आरोपित लगता है, और पहले दो दृश्यों के यथार्थवादी, विश्वसनीय और
तकंसम्मत चित्रण से यह आध्यात्मिकता किसी स्तर पर भी मेल नही खाती ।
नाटक देख-पढकर ऐसा लगता है कि भूत, वर्तमान-औरें,भवित्य की छोटी-बड़ी
सभी समस्याओं का मात्र एक ही समाधान, है उन्मुक्त कृमबत्ति (फ़ोसेक्स) ।
सतही शारीरिक काम-तृप्ति के बाद सत्य বিঘা की बड़ी-बड़ी
बातें करते हुए ये पात्र अन्त तक पहु (दल झूठे:अविश्वतनीय, বলার
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