श्री प्रेम ज्योति | Shri Prem Jyoti
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
132
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१६ श्री प्रेम ज्योति आदर्श चं
ऐसे मांसाहारी और मदिरा सेवी व्यक्ति जिनको साधु के दर्शन मात्र से
थी वे भी इनकी वाणी-वीणा के मधुर स्वर सुत कर झूम उठे इनके टि
बत गये, मांसाहार मदिरा सेवन श्रादि कून्यसनों का परित्यागं करके :
परिपूत चरणों के सदा के लिये दास वन गए । इस “चमत्कारी” एवं क्र
कारी जैन सन्त की आध्यात्मिक सेवाड्नों का कहाँ तक वर्णन करू इस
पुरुष की चरणरज से मस्तक को पावन करते वाले तथा इनकी ग्राध्याः
सेवाश्रों से प्रानद विभोर होने दाते भक्तजनों के कण्ठों पर गू जते हए
स्वरसुनाई पड़ते ह--
धन्य मात अररु तात है, धन्य वंश सुखकार।
धन्य भूमि अरू जाति है, जिसके हो तुम लाल |।
सन््तों के परम भक्त श्री सोलंकी जी ने पंजाब केसरी श्री प्रेमचन्द्र
महाराज का जीवन परिचय लिख कर सैनी वंश की पुण्य विभूतियों द्वारा
गई आध्यात्मिक सेवाओं की जानकारी कराकर सैनी वंश तथा आध्याति
जगत पर बड़ा उपकार किया है। इनके इस बुद्धि शुद्ध प्रयास के लिये इन
सप्रेम धन्यवाद ।
पंजाव केसरीश्री प्रेम चन्द्र जी महाराज का जीवन परिचय प्रका
होने का तीसरा लाभ भी उपेक्षित नहीं किया जा सकता । इस जीवन परिः
से भारतीय अध्यात्म परम्परा की एक सम्माननीय जैन परम्परा के शः
साधक की अध्यात्म साधना का साधक जगत को ज्ञान प्राप्त होगा । जैन श्रः
की कठोर संयम साधना का संसार लोहा मानता! जेन सन््तों के वि
विधानों को जीवन में उतारना बच्चों का खेल नहीं है । संसार की मोह-मा
से सर्वेथा उपराम तथा परम जितेन्द्रिय व्यक्ति ही इस विकट साधना के मह
पथ पर चल सकता है, जैव साधु जर, जोरू और जमीन का त्यागी होता
जीवन भर घोड़ा, मोटर, रेलगाड़ी आदि किसी भी सवारी का प्रयोग न
करता सदा नंगे सिर और नंगे पांव रहता है यात्रा पैदल करता है। साधु
. निमित्त भोजन बना हो वह नहीं लेता गर्भवतीस्त्री को उठने-बैठने से का
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