चतुर्वेदी संस्कृत रचनावली भाग 1 | Chatuvaidi Sanskrit Rachanavali Bhag 1
श्रेणी : भाषा / Language
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
40 MB
कुल पष्ठ :
556
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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पढ़कर पाठकों को यह आभास हो जायगा कि पुराण पारिजातः ग्रन्थ में कितने
महत्त्वपूर्ण विषयों का सारगरभित और सरल शैली में प्रतिपादन हुआ है | इसी
सन्दर्भ में हमें यह भी एक हषंजनक सूचना देनी है कि पुराणों पर “पुराण परि-
शीऊन” नाम का एक हिन्दी ग्रंथ राष्ट्रभाषा हिन्दी के मूर्धन्य सेवी संस्थान
“बिहार राष्ट्रभापा परिषद, पटना” से बहुत श्ीत्र प्रकाशित हो रहा है। इन दिनों
उसका भी मुद्रण कार्य चल रहा है। तीसरे शब्दशास्रखण्ड' मे एक वडा निबन्ध
हैँ जिसका प्रकाशन नवान्हिक महाभाष्य की भूमिका के रूप में 'पाणिनिपरिचय:”
शीषंक से हो चुका है। यह एक स्वतन्त्र ऐतिहासिक समालोचना युक्त पुस्तक
कही जा सकती है। इसके लिखने में प्रायः २ वर्ष का समय लगा था । इस
निबन्ध में संस्कृत व्याकरण शास्त्र के निर्माता प्राचीन आचार्यो और उनकी
रचनाओं की ऐतिहासिक विवेचना बड़ी बारीकी से की गई है। इस निबन्ध के
एक दो महत्वपूर्ण विषयों का संक्रेत यहाँ हम इसलिये कर रहे है जिससे हिन्दी
के पाठकों को भी इस निबन्ध की गम्भीरता का बोध हो जावे ।
पाणिनि से पहिले भी संस्कृत के लौकिक और वंदिक दोनों अंगों पर
व्याकरण बने थे । यद्यपि आज पाणिनि में पू्ववर्ती कोई सुसम्बद्ध व्याकरण
ग्रन्थ उपलब्ध तो नहीं है परन्तु पाणिनि व्याकरण के सावधान अनुशीलन से
ही यह पता चलता है कि पाणिनि से पहिले भी व्याकरण की सत्ता थी ।
कुछ उदाहरणों से उक्त तथ्य की जाँच कर लेना यहां उपयुक्त होगा। पाणिनि
सूत्र है 'आडिचापः” । इस सूत्र में तृतीया विभक्ति के एक वचन को पाणिनि
ने आड्' कहा है । परन्तु तृतीया विभक्तिके एक वचन में पाणिनि ने आद,
नहीं अपितु टा प्रत्ययका विधान क्रिया है। 'आडि्चापः' सूत्र की व्याख्या
करते हुए व्याख्याकारों का कथन है आहिति टा संज्ञा! । अर्थात् तृतीया के
एक वचन में जिस “आइ? का उक्त सूत्र में निर्देश है, वह ्टा' प्रत्यय काटी
पुराना नाम है। उसी को पाणिनि ने 'टा? कर लिया। (आडू प्रत्यय करने
पर 'ड” का लोप करना होता और डकार के इत्संज््क हो जाने के कारण
हित् कार्यों की प्राप्ति तृतीया के एक वचन में हो जाती जो कि अपनी
परिभाषाओं के अनुसार पाणिनि को अभीष्ठ नहीं थी। इसीलिए उन्होंने उसे
“आड्, न कहकर 'टा? कह दिया। परन्तु कहीं-कहीं प्राचीन व्याकरणों का
संस्कार रह जाने के कारण सूत्रों में 'टा! विभक्ति के स्थान पर आइए भी
उनके मुख से निकल गया । इसी प्रकार का एक सूत्र है औड़ आपः, यहां
भी पाणिनि ने प्रथमा और द्वितीया विभक्ति के द्विवचन के प्रत्यय को 'ओढ!
कहा है, परन्तु उनकी विभक्तियों में प्रथमा तथा द्वितीया का द्विवचन “ओः
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