कोसी का घटवार | Kosi Ka Ghatwaar

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Kosi Ka Ghatwaar by शेखर जोशी - Shekhar Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किया, परन्तु फिर ठोक कर कहने लगे, “यहाँ, बाबूसाहबी ठार नहीं चल्लेगा | कुछडाँगरी-बाँगरी नहीं लाये अपने साथ £ ह मुे प्ते इस बात का बिल्कुल दही ध्यान नदीं था | तबे अपने साफ कपड़ों के खराब हो जाने का ज्ञान डुश्रा। लब्जित स्वर में मैंने कहा, 'कल से ले आऊंगा, आज पता नहीं था ।'* #& ! उस्ताद कुछ सोचने लगे | फिर उन्होंने ,कुन्दन से कहा 'देखो ! फकीरा आज नहीं आया है, उसका कफुन लटका होगा कहीं बाबू को दे दो, पहन लेगा |! कुन्दन कहीं से खोजकर फकीरा का 'कफन” ज्ञे. श्राया । उस्ताद की डाँगरी से भी ज्यादा मेंली, चीकट थी बह डाँगरी। कुन्दन ने जब डॉगरी मेरी ओर बढ़ायी, तो उसे हाथों में लेना ही पड़ा । योंही एंक बार उसे पूरी तरह खोलकर मैने कह दा, “उस्ताद ! मेरे लिए यह बहुत छोटी रहेगी, रहने दीजिए, इन्हीं कपड़ों से आज काम चला लूँगा ।! कुन्दन और उस्ताद दोनों ही मुस्करा दिये। उस्ताद ने व्यंग किया, 'फकीरा तो ससुरा बौना ही रह गया !? पर अगले दिन फकीरा को देखा, वह मुझसे चार अंगुल ऊंचा ही रहा होगा | उस दिन में फिर कुन्दन के साथ नहीं जा वाया । उस्ताद ने अपने ही पास बैठा लिया । मेरे लाख मना करने पर भी मेरे लिए सिगरेट मेंगाया गया, “आज के दिन तो तुम हमारे मेहमान हो, बाबू | कल से जैसे सब हैं, वैसे तुम भी काम करोगे । उन्होने कहा था | सचमुच ही अगले दिन से मुझे भी दूसरे सभी कारीगरों की तरह काम करना पड़ा । उस्ताद से बहुत कम बाते हो पाती थीं। पहले दिन की सी सब कुछ कह डालने की उनकी आदत नहीं थी । वह तो पहले दिन उन्होंने शायद मेरा अज्ञनता भाँप ली थी, इस कारण सब-कुछ बताना उस्ताद २३




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