प्रमुख स्मृति ग्रंथों में धर्म का स्वरुप | Pramukh Smriti Granthon Mein Dharm Ka Swaroop

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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7 नहीं कर सकती थी इसीलिए बोधायन ने शिष्ट व्यक्तियो के आचार को भी धर्म का स्रोत माना है | इससे यह बात स्पष्ट होती है कि धर्म का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे कार्य करने के लिए प्रेरित करना था जिनसे उसकी व्यक्तिगत और साथ ही समाज की भी उन्‍नति हो सके । सूत्र ग्रथो मे वर्ण धर्म, आश्रम धर्म ओर सामान्य धर्म के अन्तर्गत धर्म कं सभी पहलुभो का ज्ञान प्राप्त होता है । सामान्य धर्म से अभिप्राय उस धर्म से है जिसका पालन प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए । गौतम धर्मसूत्र मे कहा गया हे कि जिस मनुष्य मे दया, धैर्य, ईर्ष्या का अभाव, शरीर, वाणी ओर विचारो की पवित्रता, कष्टदायक महत्वाकाक्षा का अभाव, दूसरो की भलाई करने की भावना, दीन न होने की भावना ओर दूसरो की वस्तुओ कौ लेने की इच्छा न होना, ये आठ गुण होते है वह ब्रह्म लोक को प्राप्त करता है | और यह भी कहा गया है कि चालीस सस्कारो के करने पर भी यदि ये आठ गुण नही आये तो ब्रह्मलोक की प्राप्ति नही हो सकती | इसी प्रकार वसिष्ठ ने भी कहा कि दूसरो की निदा ईर्ष्या, अहकार, अविश्वास, कुटिलता, आत्मप्रशसा, दूसरों को बुरा कहना, धोखा, लोभ, वहकावट, क्रोध ओर प्रतिस्पर्धा छोडने को सभी आश्रमो मे मनुष्यो के धर्म है, ओर आदेशित किया है कि सच्चाई का अभ्यास करो अधर्म का नही, सत्य बोलो असत्य नही, अगे देखा पीठ नही, उदात्त पर दृष्टि रखो अनुदात्त पर नही ।' आपस्तम्ब धर्म सूत्र के अनुसार मनुष्य को सभी आश्रमो मे उन अवगुणो को त्याग करना चाहिए जिनसे मनुष्य का नाश हो ओर उन गुणो को ग्रहण करना चाहिए जिनसे मनुष्य की उन्नति हो ।' इन सबसे यह स्पष्ट होता है कि गौतम एव अन्य धर्म शास्त्रकारो के मतानुसार यज्ञ कर्म तथा अन्य शौच एव शुद्धि सम्बन्धी धार्मिक क्रिया सस्कार आत्मा कं नैतिक गुणो की तुलना मे कुछ नहीं है | फिर भी वे समाज को बाह्याडबर से दूर करके धर्मपालन के द्वारा नैतिक व्यवस्था स्थापित करना चाहते थे । रामायण, महाभारत तथा स्मृतियो मे सामान्य धर्म के बारे मे स्पष्ट व्याख्या प्राप्त होती है | रामायण के अनुसार चरित्र ही धर्म है और इस कारण चरित्रवान राम धर्म के मू्तरूप है [ इस चरित्र के द्वारा ही मन मे सयम इन्द्रियो पर नियन्त्रण ओर कर्तव्य पालन की भावना का विकास होता है । दूसरो के प्रति अपने दायित्व को निभाना, लोक जीवन की मर्यादा की रक्षा करना, समाज की व्यवस्था बनाए रखने मे योगदान करना ही धर्म है | इस धर्म से बधा हुआ मनुष्य स्वार्थ से परमार्थ को श्रेष्ठ समझकर लोकमगल की साधना मे लगा रहता है । महाभारत लोकधर्मं का अमूल्य ग्रथ है । इसमे कहा गया है कि क्रोध न करना, सत्य बोलना, न्यायप्रियता. अपनी विवाहिता पत्नी से सन्तान की उत्पत्तिः सदाचार, व्यर्थं कं झगडो से बचना, सरलता ओर सेवको का पालन पोषण ये नवो गुण चारो वर्णो के कर्तव्य है | महाभारत मे यह भी कहा गया है कि अन्य व्यक्ति के साथ किसी व्यक्ति को एसा व्यवहार नही करना चाहिए जो वह अपने अनुकूल नही । गौत घर्म0 8/ 23-24 2 वसिष्ठ0 धर्म0 -- 10/30/31/1 3 आप0ध० - 1/8/23/3-6 4 रामायण अरण्यकाण्ड 39/13 5 महाभारत शान्तिपर्व 607




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