श्रीमद रामानन्द दिग्विजय | Shrimad Ramanand Digvijay

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Shrimad Ramanand Digvijay  by भगवद्दास ब्रह्मचारी - Bhagwaddas Brahmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ष्र्‌ तिरस्कार न होता । यदि हमारे यहां तीङ्करोका अनुकरण हाता तो हिन्दु घमं इतना बुद्‌ नहीं हे किं वह जनकौ सङ्ख्या परतन्त्र हाकर २४ दही अवतार लिखता । वह श्रवद्य ८ लिखता । याद हिन्दुधम जेन मतकरा अनुकरण होता तो तो वह अपने देवी दवताश्रर शृङ्गारमय न रखता क्योंकि वह जान सकता था कि वीतरागताका बेसुरा अलाप अलापनेवाला जेनमत मरा खण्डन करेगा । यदि हिन्दुधर्मं जेनपरतका अनुक्ररण होता तो भागवत जसे प्रनथमे कमी भी ऋषमदेयकरो अवतार न स्वीकार किया जाता इत्यादि अनेक कारण चताये जा सकते हैं कि हिन्दुर्म किसी धर्मका अनु- करण नहीं है । म्रत्युत अन्य सव॒ मत इस पुराणधर्मके अधमणे हें । নব: जैनमत हिन्दुधर्मके देवी, देवताओं, ऋषियों और मुनियोंके वे ही पौराणिक और ऐतिहासिक नाम लेकर उन्हें जैनमतकी गूदड़ीम ढ़ांक- নঈ प्रथत्ममें लगा हुआ था तथा उसकी यह प्रबल इच्छा थी कि जैनमत हिन्दुधर्मकों हड़पकर जाबे, अतः मैं कहता हूँ कि जैनमत हिन्दुधर्मका- प्रबलतर शत्रु था | इन दे शत्रुओका सामना करके हिन्दुधभकी रक्षा, हिन्दु मर्यादाकी रक्ता, दिन्दुजातिकी रन्ता, दिनदुसम्यताकी रक्ता, वैदिकरूढ्की रकता, वैणावधर्मकी रक्षा-इत्यादि अनेक कार्य थे जिनकरेलिये परमाचार्य्य श्रीरामा- নন্ছু स्वार्मीजी महाराजका इस धराधामपर पदारपण हुआ । श्रीमद्वाल्मीक संहितामें एक कथा लिखी है। उसका सारांश यह है कि एक मनसुख नामका ब्राह्मणकुमार अ- शरीस्वामीजीकी अवेतस्भूमि पने मातापितासे पएथक होकर জানান ओर उनका समग्र तीभराज-प्रयागके किसी अरण्यम निवास करता था । वह सर्वेश्वर श्रीरामजीक्रा परम भक्तं था। प्रभु उसकी अनन्यनिष्ठा देखकर, बालरूप घारणकर, उसके साथ ऋ्राइक व्याजसे वहां प्धारे। बहुत देर तक साथ खेलनेके कारण दोचों बालका्म शुद्ध अनुराग उत्पन्न हुआ | अमु जब जाने लग, मनछुल रान सगा ।




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