मोक्षमार्ग प्रकाश के की किरणे भाग 2 | Mokshamargaprakashak Ki Kirane Bhag 2

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Mokshamargaprakashak Ki Kirane Bhag 2  by टोडरमल - Todarmal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के भी सिद्धस्यः नमः के क श्री मोश्षमाग प्रकोर्शकेम्यः नस, 4 अध्याय सातवा जैनमताजुयायी मिथ्यादृष्टियों का स्वरूप [ बीर स? ०४७६ माघ शुक्ला १०, शनि, २४-१-५३ ] दिगम्बर सम्प्रदायमें सच्चे देव-ग्रुर-शासत्रकी मान्यता होने पर भी जीव मिथ्यादृष्टि किस प्रकार हैं ? वह कहते हैं । जो वेदान्त, बौद्ध, श्वेताम्बर, स्थानकवासी श्रादि हैं वे जेन मतका अनुसरण करनेवाले नही हैं,--यह वात तो इस शासत्रके पाँचवें अधिकारमे कही जा चुकी है। यहाँ तो यह कहते हैं कि---जो वीतरागकी प्रतिमाको पूजते हैं, २८ मल ग्रुण घारक नग्न भावलिंगी मुनिको मानते हैं, उनके कहे हुए शासत्रोका भ्रभ्यास करते हैं--ऐसे जैन- मतानुयायी भी किस प्रकार मिथ्यादृष्टि हैं । “सता स्वरूप” में श्री भागचन्दजी छाजड मे कहा है कि दिगम्वर जैन कहते हैं कि--हम तो सच्चे देवादिको मानते हैं इस- लिये हमारा ग्रृहीत मिथ्यात्व तो छूट ही गया है। तो कहते हैं कि- नही, तुम्हारा गरहीत मिथ्यात्व नही छूटा है, क्योकि तुम गृहीत भिथ्यात्वको जानते ही नही । श्रन्य देवादिको मानना ही गृहीत मिथ्यात्वका स्वरूप नही है। सच्चे देव-गुरु-शाख्षकी श्रद्धा वाह्ममें




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