प्रमेयरत्नमाला | Prameyratnmala
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
459
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना १३
योगाचार का दूसरा नाम विज्ञानाद्वैत॒वादी है, क्योंकि इनके मत में विज्ञान-
मात्र ही तत्त्व है, अर्थ की सत्ता विलकुल भी नहीं है । इसी प्रकार माध्यमिको
को शुन्येकान्तवादी या शून्यवादी कहते है वयोक्रि इनके यहाँ शून्य ही तत्त्व है।
हाँ यह ज्ञातव्य है कि माध्यमिको का शुन््य तत्व वसा नही है जेसा इतर मत
वालो ने समझ रक््खा है। प्रत्येक पदार्थ के विषय में चार कोटियो से विचार
किया जा सकता है, जैसे सतू, असत्, उभय और अनुभय । माध्यमिकों का कहना
है कि तत्त्व चतुप्कोटि से रहित है! और एसे तत्त्व को शून्य शब्द से कहा गथा
है। दूसरे प्रकार से उन्होने प्रतीत्यसमुत्पाद को ही शुन्य कहा है ।
इन विज्ञानाद्ेत वादियों ओर रून्यैकान्तवादियो के मत का निराकरण करने
के लिए प्रमाण के लक्षण मे अथे पद दिया गया है। प्रमाण को अर्थ का ग्राहक
होना चाहिए, न कि ज्ञान का अथवा इन्यका।
बौद्धों ने ज्ञान की उत्पत्ति में अर्थ को कारण माना है तथा ज्ञान मे अर्था-
कारता भी मानी है। इस अर्थाकारता के द्वारा ही वे ज्ञान के प्रतिनियत विषय
की व्यवस्था करते है! सूवकारने उनकी इख मान्यता का खण्डन किया है।
अर्थ ज्ञान का कारण नहीं है, क्योकि अर्थ के अभाव में भी ज्ञान की उत्पत्ति
देखी जाती है | जेसे केशोण्ड्रकज्ञान । केगोण्ड्रकज्ञान क्या है इस विषय में किसी
भी टीकाकार ने कोई स्पष्ट व्याख्या नही की है। कुछ बिद्वन् इसका अर्थ केश्ञों
में उण्डुक ( कीडों अथवा मच्छरों ) का ज्ञान करते हैं। किन्तु मेरी समझ से
केशोण्डुकज्ञान केशरूप अर्थ के सद्भाव मे नहीं होता है अपितु अर्थाभाव में ही
होता है । सूत्रकार ने अथै के साथ ज्ञान के अन्वय-व्यतिरेक का अभाव बतलाया
है 1 यदि केशों के सद्धाव मे केशोण्डुक ज्ञान माना जायगा तव तो अर्थंके साथ
ज्ञान का अन्वय-व्यतिरेक सिद्धही हो जायगा । यहाँ कोई कह सकता है कि
केलोण्डुकज्ञान मे केर मिथ्याज्ञान के कारण होते है न कि सम्यण््ञान के । इसका
उत्तर यह हैं कि यदि केशरूप अर्थ कहीं मिथ्याज्ञान का कारण हो सकता ह तो
अन्यत्र सम्यम्तान का भी कारण हो सकता हैं। सूत्रकार का भी अभिप्राय यही
१. न सच् नासन् न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् ।
चतुष्कोटिविनिरमुक्तं त्वं माध्यमिका विदुः 1-- माध्यमिककारिका १।७
२. यद्व प्रतीत्यभावो भावानां शून्यतेति सा ह्युक्ता !
परततीत्य यश्च भावो भेवति हि तस्यास्वभावत्वम् 1
--विग्रहव्यावतिनी इलो० २२
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