दिनकर : एक पुनर्मूल्यांकन | Dinkar : Ek Punarmulyankan

Dinkar : Ek Punarmulyankan by विजेन्द्र नारायण सिंह - Vijendra Narayan Singh

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about विजेन्द्र नारायण सिंह - Vijendra Narayan Singh

Add Infomation AboutVijendra Narayan Singh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
१४ दिनकर : एक पुनमुल्यांकनं में भुचाल है और साँस में लंका के उनचास पवन । यदि यह्‌ विपथगा कोई रूपसी मात्र रहती तो यह भूचाल पुरुष के हृदय में उठता श्रौर उसकी साँस से मलय-पवन निकलता । यह विपथगा श्रपने मस्तक पर छत्र-मुकुट भी पह- नती है, यद्यपि कि वह सुकुट काल-सर्पिणी के सैकड़ों फनों से बना है। यह चिर-कुमारिका है और अपने ललाट में नित्य नवीन रुधिर-चन्दन” लगाती है। दिनकर सदा से अपने मन में चिर कुमारिका की कल्पना सँजाये रहे हैं। यह कल्पना 'रसवंती' में भी है और “उवेरी'मे तो उसका प्रक्षे ही है: 'रूपसी ग्रमर मैं चिरयुवती सुकुमारी हैँ। देश बेहाल न रहता तो यह नारी मूलतः कुंकुम ही लगाती, रुधिर का चंदन तो समय की पुकार के कारण वह लगाती है । अ्ंजन भी यह लगाती है, दरिद्र देश को चिता-धुम के सिवा और क्या मिलता; तथा संहार की लपठ का चीर यह पहचती है। इस विपथगा की पायल की पहली मक से खष्टिमें कोलाहल छा जाता है; यों भी यह कोलाहल नर्तकी की पहली भमक से पुरुष के हृदय में छाता ही है। यह जब चितवन फ्ेरती है तब पव॑त के श्ंग टूट कर गिर जाते हैं। यदि वह रूपसी होती तो पुरुष कट कर गिर जाता। योवत्त इस नारी का भी कसमस करता है। “विपथगा' का आदूयंत निर्माण रूमानी है। यह मृत्युंजय वीर कुमारों पर जतून-सी चलती है । नारी का स्वभाव ही है पुरुष को उन्मत्त बना देना । यह रानी तो है, किन्तु, विपरीत परिस्थितियों के कारण ज्वाला की । जन्म इसका हुआ, किन्तु आहों से । लालन-पालन इसका भी हुआ किन्तु कोड़े की मार खा कर | सोने-सी निखर जवान यह भी होती हैं और इसके चरणों को तीनों लोक खोज रहे दहै यद्यपि किमयसे। यह्‌ इसी प्रकार भन-भन-भन- भन करती हुई आती है । इस प्रकार विपथगा' मूलतः नारी-विम्बोंसे भरी कविता है । इसका आक्रोश मादकता की कुक्षि से फूटा है । “हिमालय” की कल्पना मूलतः रोमांटिक है--सुकुमार है। रोमांटिक व्यक्ति वस्तुश्रों को सही रूप में नहीं देखता है-- या तो वह श्रत्यन्त उदात्त रूप में देखता है या एकदम गहित रूप में । संतुलन उसकी कोई विशिष्टता नहीं होती । दिनकर मूलतः रोमांटिक श्रावेग से ही चालित हो कर हिमालय को 'साकार दिव्य गौरव विराट !*के रूप में देखते हैं। उसे पोरुष के “पुंजी- भूत ज्वाल' कहने के पीछे भी यही प्रेरणा है। इतना: विराट पुरुष (हिमालय श्र उसके परो पर पड़ी हई भिखारिणी मिथिला है । मिथिला भिखारिणी दहै तो क्या हुआ--वह सुकूमारी' जो है । दिनकर कामन श्रव तोष पा सका |




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now