भागवती-कथा भाग ४५ | Bhaagwati Katha

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Bhaagwati Katha by अद्भुतदत्त ब्रह्मचारी - Adbhut Datt Brahmchari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कहाँ कहाँ क्‍या क्‍या देखा ? १६ चर्मी चले श्राति है दस षीस. ,हवा गाही खड़ी रती दो, षदी- सबसे बड़ी महात्मा सिद्ध माना जाता है। जिन छोटी छोटी बातोंपर साधारण ग्रहस्थी भीन लड़ते होंगे उनके ऊपर ये: सत्संग वाले लड़ते हैं और उनसे फोई पूछता ই--তী दोनों अपनी हृठकों सिद्ध करनेका प्रयत्न करते हैं, भाँति भाँतिके तक: देते हैं| अपने अधिकारका श्रश्न बताते हैं और अधिकारके लिये मर मिदनेको कहते हैं ।” वास्तवमें दुःख तथा अशान्तिके दो हो कारण दै । विषय भोगोंकी अधिकतृष्णा और अधिकार श्राप करनेकी भावना । इसी प्रकार सुख के भी दो ही कारण हैं. सन्‍्तीष ओर अधिकारका परित्याग । जब तक मनुष्य यथा लाभमें संतुष्ट न रहेगा और अपने अधिकारोंका प्रसन्नता पूवेक परित्याग न रेगा, तब तक, उसे यास्तविक शान्ति नदीं | किन्तु आज হল देख रदे ई, लग स्वयं तो अशान्‍्त हैं. द्वी दुसरोंकी शान्ति भंग करनेका सतत; प्रयत्न करते. रहते हैं। दूसरॉको तो त्यांगका पदेश देगे। स्व्रय॑ छीटी छोटी बातोंके लिये लड़ेंगे, तनिकसे लोभके लिये अड़ जायँगे। परस्परमें जो प्रेम सहानुभूति होती थी, वद्‌ अब कहीं दिखायी ही नहीं देती । पहिले लोग किस प्रकार हृदय, खोलकर मिलते थे, कितना भ्र॑म॒ प्रदर्शित करते थे। अबः बोलमें, :चालमें, मिलनेमें, आचारसें,, व्यवदह्यारमें सर्वत्र बनावट: गयी है समाजमें, साहिस्यमें, राजनी तिमें, कलामें, व्यापारतों মর্ম হম सबमें स्वार्थपरताने श्रड्डा जमा .लिया है। जो स्वयं आचरण नहीं करते,वे; दूसरोंको उपरेश देते हैं, जिनको दीक्षा देनेका अधिकार नहीं, उन्होंने,दीज्षा देनेकी दुकोन खोल रखी 1. जो चाहों उनसे ,दीक्षा, ले जाओ! जिसका चाहो मन्त्र ले जाओ-1। कोई विचार नहीं, पूछ नहीं, ताद नहीं । द किसी एक व्यक्तिने किसी सन्यासीसे पृछा-.-'“सन्यांसीको तो गरंहस्थियोंकों मन्त्र दीक्षा देना निषेध , है | गृहस्थियोंका दीक्षा देने--




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