श्री गणेश मुनि शास्त्री : साधक और सर्जक | Shri Ganesh Muni Shastri Sadhak Aur Sarjak

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Shri Ganesh Muni Shastri Sadhak Aur Sarjak by रामप्रसाद त्रिवेदी - Ramprasad Trivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अध्याय १ साधत के प्रस्थान-बिन्दु : एक शब्दचित्र संझला कद ! হী !! ह ससस्‍्तक पर तकंजाल-सी उलझी रजतवर्णो केश-राशि !![! भव्यनेत्र--अनु राग और प्रज्ञा-हृष्टि के दो चषक ! श्वेत-शुद्ध खादी के परिधान--स्वच्छ और वैराग्यपूरित हृदय के संकेत-चिह्न ! नंगेपाव--संसार के दुर्गंम स्थलों पर पहुँचने की उत्कट अभिलाषा के प्रतीक ! ,चश्से के पीछे झाँखती आँखें--गंहन अच्तहं ष्टि और मानवहृदय की पहचान को उजागर करती दीप शिखा ! अधरों पर मधुर स्मित-रेखा--मानो दुनिया के आडस्बरों पर दीवाने ' जन-समाज को भरसक रोकने की स्नेहिल चेतावनी ! व्यंग्य नही, अपितु ममता की पहली फुहार ! संथरगति--साधक के गम्भीर चिन्तन की प्रथम पहचान ! जल्दबाजी में कुछ भी अशोभनीय न करने की हढ़भीति !! साय-व्यवहार--सज्जनों के साथी, दुर्जनो से कोसों दुर ! साधु- समागम को उत्कठ आकांक्षा के प्रतीक ! गुरु-भार्ईयों को सद्‌-संगति ! शिष्यों को वेराग्य की उत्कट-साधना के सबल प्रशिक्षक ! | व्यवसाय--अध्ययन-मनन-प्रवचन-ज्ञानउर्मियों के प्रत्यक्ष अनुभवी साधक ! धर्म, दर्शन तथा काव्य के आराधघक ! वैराग्य तथा तप की




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