महाकवियों की अमर रचनाएं | Mahakaviyon Ki Amar Rachnaye

Mahakaviyon Ki Amar Rachnaye by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[৫৭ ] कुछ ही दूर ओर चलकर कैलास के पूर्वोत्तर कोने मे चन्द्रापीड ने क्ृष्णपक्ष के घने अंधकार के समान वृक्षों का कुंञ देखा । उसमें प्रविष् होते दी आच्छोद्‌ नाम का अत्यन्त मनोहर सरोवर उसके दृष्टिगोचर हुआ। वह सरोवर के दक्षिण तट पर जा पहुँचा और इन्द्रायुध से उतर पड़ा । कुछ ही देर आराम के उपरान्त उसने उत्तर दिशा की ओर गीत की ध्वनि सुनी | गान से आक्ृष्ट बन-सृग ध्वनि के पीछे ही सरोवर के पश्चिमी तटवर्ती बन की ओर छलाँगे मारते हुए दौड़े जा रहे थे | उस पञ्िम तट पर चन्द्रिका की भांति घचल चन्द्रभभा नाम की भूमि पर उसे भगवान्‌ शिव का एक शून्य सिद्ध-मन्दिर दिखाई दिया । बह मन्दिर मे प्रविष्ट हुआ । दक्िण-मूर्तिं के सामने चन्द्रापीड ने व्रह्मासन में वैटी पा्ुपत त्रत धारण किये हए एक कन्या देखी, जो वीणा-चादन के साथ गा रही थी । खेत, सुन्दर अपनी सहज प्रभा से वह्‌ निकटवर्ती भूमि को आमान्ित कर रही थी | | वह घाला गीत समाप्त कर उठी और शिव की परिक्रमा कर उन्दः प्रणाम क्रिया । तदनन्तर उसने चन्द्रापीड़ की ओर देखा और विनम्र भाव से कहा :-- “अतिथि महाभाग स्वागत } आप इस प्रदेश से कैसे पधार ९ कषा कर मेरा आतिथ्य स्वीकार करं “लैसी आपकी आझा' कह कर चन्द्रापीड़ उसके पीछे चला | सामने एक गुहा दिखायी दी । যাহা यर के दोनों ओर भरने भर रहे थे | बल्कल-शेय्या के सिरहाने वीणा रख कन्या बाहर निकली । पिर पत्त का दोना यना. अभ्य के लिए भरने से जल भर लायी।




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