एकोत्तरशती | Ekotarsati

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Ekotarsati by रवीन्द्रनाथ ठाकुर - Ravendranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ नये सचि मे ढाला है, लेकिन फिर भी यह समझने में भूल नहीं हो सकती कि सुसमुद्ध भारतीय पुराण-साहित्य से उसका गहरा सम्बन्ध है। मनृष्य और परमात्मा के प्रति निवेदित अपनी कविताओं में उन्होंने सभी प्रकार के अलंकरण का परित्याग कर दिया है 1. मनुष्य की साधारण-से-साधारण परिस्थिति का भी उपयोग उन्होने सत्य की अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने के छिएु किया है। उनकी भाषा भी सर्व॑-साधारण की भाषा-जैसी सहज, सरु ओौर स्पष्ट हो गई है। बाद के इन बहुत-से गीति-काव्यों ओर गीतों में हम अन॒भूति के सामीप्य का साक्षात्कार अन्‌भव करते हं । शाब्द विल- कुल पारदशक ओर स्वच्छ हो गए हं । विशुद्ध संगीत की ध्वनियौं की नाई उनमें एेसी सबर्ता ओर स्पष्टता आ गई है, जिससे हम बहुधा अवाक्‌ रह जातेहं। । हम यह भी नहीं भूल सकते कि रवीन्द्रनाथ अपने समस्त जीवन में सत्य के निर्भीक और सच्चे खोजी रहे। उनकी बुद्धि के तेज ने प्रवंचना ओौर पाखण्ड के बाह्य दिखावटी स्वरूप को, जिसका निर्माण हम अपने दैन्य को छिपाने के लिए करते हें, छिन्न-भिन्न कर दिया है। उनकी रचनाओं की ऊर्जस्विता और शोय॑ वाले गुण से वे लोग बहुत दूर तक अपरिचित ही हैं, जिन्होंने उन्हें मूल में नहीं पढ़ा है। इसका एक कारण यह है कि अनुवाद के लिए चुनी हुई रचनाएँ ही ली गई हैँ; और उनमें कुछ ऐसी कविताएँ छाँट दी गई हैं जिनसे रवीन्द्रनाथ की बंद्धिं के पैनेपंन और प्रंसोर-मात्र का पता चल पाता। दूसरा' कारण यह है कि बहुत-सें अनुवाद छाया-मात्र हैं, और उनमें मूल की खुरदरी और दुर्दम शक्तिमत्ता प्राय: खो-सी गई है। मनुष्य तथा उसकी नियति के प्रति रवीन्द्रनाथ की दिलचस्पी उनके जीवन कं प्रारंभिक काल से ही दीख पड़ने रूगती है । “सन्ध्या संगीत मँ भी जो कि उनके प्रथम-प्रथम के काव्य-संग्रहों में दै, हम उन्हं मानव के अस्तित्व. की समस्याः कोः छे कर उलझतें हुए पाते हं । मनुष्य का स्वार्थं जव प्रेम काःबाना पहन लेता है तो उससे एक असृन्दरता-सी . 7.




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