पगली | Paglii

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Paglii by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला ब्रल्लाप সস চে वेद-वाद ज्ञानादि बादि के प्रेम-प्रथा प्रगठटाऊं । “हरि ले बीन लीन डे तुव छीबि, नित नव शुन-गन गाऊ ॥ उस कृपटीको अपबस कर लेना ही तों कठिन है । किस अर्थका मेरा यह मनोराज्य । अरे, हाँ, केसेहुं जो अपबस करि पाऊँ। गाना फिर सुनाऊँगी। अभी तो एक वेदान्तीको कथा सुनाती हैँ । सुनो--एक दिन एक ज्ञानी कहो या विज्ञानी कटो, वेदान्ती कहो या द्र त-अद्धौ तवादी कटो, अथवा ई'ट-पत्थर ऊख भी कहो - सुमे विश्वनाथवावाकी पुरीमें मिला । बात-बातमें गद॑न खठा-उठाकर उपनिषद्‌, ब्रह्मसूत्र ओर गीताके प्रमाण दे रहा था । ओर सुन छो, कहता था, अह्ह्मास्मिः मे ब्रहम हँ । निगोड़ं का बापमी कभी ईश्वर-परमेश्वर हुआ दोगा! दै, देखो-तुम्दीं बताओ, जिसे ब्रह्म-साक्षातकार हो गया, वह संसारभरको यकबास काहेको करता फिरेगा ? ब्रह्म तो मन-वाणीसे परे है न ! सैया, में ठद्दरी पगली । उस वेदान्तीपर ज्योंही में! सहजस्वभावसे गालियोंकी पुष्प-वर्षा करने छंगी, त्योंही हरामजादा अपने टकेसेर- वाले ब्रह्मवादको पोथिर्योके बस्तेमें बंद करके मुझ पगछीपर बेतरह बिगड़ उठा । मेंने उसे एक गाली दी, तो उस ब्रह्ममूतने मुमके पचास गालियां दीं । में खिलखिलाकर हँस पड़ी । और मेरा आऑय-बायँ-सायँ सुनकर वह ब्रह्मवादी भयमीत हो भाग गया । ११




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