हमारी-उलभन | Hamari-Ulbham

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Hamari-Ulbham by धीरेन्द्र वर्मा - Dhirendra Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ड्श्व्र ७ सज्जन ताल्लुकदारों के खानदान के हैं और उन्दोंनि ताल्लुकदारों के व्यर्थ का जिक्र करते हुए कह्ा था, “अगर में ताल्लुकरार होता तो अपने ताल्लुके पर दुस-पाँच छाख का कर्ज अवश्य छोड़ जाता | इसी हाह्नद में मेरे लड़के को वालुकः पति दी इख वात को चिब्ता होती कि यह क जो कैसे अदा किया जाथ। ओर मेरा ज़्ड़का आरम्म से ही मुसीबतों में पढ़कर नेक बनता। जो वल्छुकदार मरने के वक्त दस-पाँच लाख रुपया नकद छोड़ते हैं वे भानो अपने लड़कों को वसीयत कर ज्ञाते हैं कि “इस रुपए से वेश्यागमन करो, शराब वियों और इस प्रकार सदा के लिए अपनी ज़िन्दगों नए कर लो ?? मैंने अकसर पैसा पैदा करने के लए अपनी मनुष्यता को बेचने के लिए इत्सुक आदर से पूछा है, “तुमने इतने गिरे हुए काय-कम को अपना आदश स्यो मान रकल है ९ लेकिन में जानता हैं कि लोगों से मेरा यद्द प्रश्न बेकार हो था। इसका एकमात्र कारण यह है कि लोगों के सामने अभी तक कोई आदश भो तो नदीं है ¦ सामने से नेय मदलवे समझ में! से है। ज्ञोगों को िन्दगी की साथंकताका पता नह, वेतो जिन्दगी कौ साथंकता अपने को दूसरों से प्रथक करके अच्छा खाने में, अच्छा पहनने सें, अच्छे सकानों में रहने में, अच्छी सवारियों पर चढ़ने में और दूछरों द्वारा आदर पाने में समझते हैं । इस सवके लिए घन चाहिये, और इसी लिए घन के पिशाच




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