भूदान | Bhudan

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Bhudan by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मैं € किसी प्रकार का कोई सहयोग नहीं दिया । यथार्थ में कूटुम्व का सहयोग ही एकाकीपन मिटाता है । इतने पर भी इस एकाकी कमंण्य जीवन से मुझे जो सन्तोप प्राप्त हो रहा था वह शायद दुनिया का सबसे वड़े सन्तोपों में एक सन्तोप कहा जा सकता है । ऐसे ही जीवन के लिए कवि-सम्राटू रवि वादू ने लिखा है-- यदि तोर डाक सुनें केउना शझ्रासे तवे एकला चलो रे, एकला घलो रे, एकला चलो, एकला चलो रे । यदि केख कथा ना कय, श्रे, श्रोरे, श्रभागा, यदि सवाई थाके मुख फिराये, सवाई करे मय तवे परान खुले, श्रोरे, तुई मुख ॒ फ्ूटे तोर मनेर कथा एकला वोले रे। यदि. सवाई. फिरे जाय, श्ोरे, थ्ो. श्भागा, यदि गहन पथे जवार काले केउ फिरे ना तबें पयेर काँटा, श्रो, तुई रक्त माखा घरन तले. एकला दलो रे । यदि. श्रालो ना. घरे, श्ोरे, श्रोर, झो श्रभागा, यदि भानु वादले :राते देय घरे तवे वजानले श्रापन बुकेर पाँचर ज्वालिये निये एकला चलो रे । मैंने भ्रसहयोग श्रान्दोलन के हर पहलू पर पत्रों में लेख लिखना भी श्रारम्भ किया । ये लेख हमारे प्रान्त के तथा प्रान्त के वाहर के पत्रों में छपते, हिन्दी श्रौर ध्रंग्रेजी दोनों भाषाओं में । इन लेखों में खादी पर लिखे गये एक लेख की उस समय बड़ी चर्चा हुई । गान्वीजी तक को यह लेख वहुत पसन्द श्राया । उनकी आ्रोर से श्रीयुत कृष्णदासजी ने मुझे सावरमती से ७ दिसम्बर सन्‌ २१'को निम्नलिखित पत्र भेजा था-- फिदणतण 65९5 ए0€ (0 फ्र0० छा. प्रा भाषण भी उस समय मैंने वहुत दिये । ये भापण श्रनेक विपयों पर होते, पर अधिकतर ये रहते राजनी तिक, साहित्यिक श्रौर सामाजिक । पर चाहे किसी भी विपय पर मैं बोलता श्रसहयोग का कार्यक्रम तो उसमें किसी न किसी ढंग से श्रा ही जाता । इन की प्रश्न॑ंता भी वहुत होती । इस सम्बन्व में भी




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