श्रीमद् आचार्य भीषण जी के विचार रत्न | Shrimad Acharya Bhishan Ji Ke Vichar Ratna

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[5 1 चातुर्मास समाप्न होने पर श्रीमद्‌ भीग्णज्ी ने राजनगर से विहार स्िया। उन्होंने अपने साथ जो चार और साधु थे उनको अपनी मान्यताओं को अच्छी तरह सममाया। चास्तनिक माधु आचार ओर बिचार कौ धाते उनको वत्तराई यह सुन कर सभी साधु हर्पित हृष ओर भौखणजी के विचारों को मत्य पर अवलम्बित समभा! भीग्पणजी राजनगर से विहार कर सोजत की ओर आ रहे थे। रास्ते में छोटे-छोटे गाय पड़ते थे, इस लिए साधुओं के दो दल कर दिए एक दल में वीरभाणजी थे। भीसणजी ने बीरभाणजी को समम्धा दिया था कि यदि वे सघनाथजी के पास पहिले पहुचे तो वहां इस विपय की कोई चर्चा न करें क्योंकि यदि पहिले ही वात सुन कर पक्षपात दहो गया तो सममनेमे विशेष कषिनाई होगी । में खुद जाकर सब बातें विनय पूर्वक उनके सामने रखूगा और उल्हे सत्य मार्ग पर छाने की चेष्टा कछूगा। घटना चक्रसे बीरभाणजी ही पहिले सोजत पहुँचे | उस समय र्चनाथजी वही ये । वौर्माणज्तै ने चन्दना की | झाचार्य स्थनाथजी ने पृछा श्रावको की शका दूर हुईया नहीं॥ चीरभाणजी ने उत्तर दिया--“क्राबको के कोई शका होती तय न दूर होती उन्होने तो सिद्धातो का सच्चा भेद पा लिया है। हम छोम आवाकर्मी आहार करत हे । एक ही जगह से रोज़-रोज गोचरी करते हैं, बस्त, पाजादि उपादानो के बे हुए परिसाण का डल्कूघन करते है, अभिभावको वी अक्त धिन ही रीष द टारततेह्‌, हर्‌




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