जैन धर्म मीमांसा ( भाग-६) | Jain Dharm Mimansa (Bhaag - 6)

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Jain Dharm Mimansa (Bhaag - 6) by रघुनन्दन प्रसाद - Raghunandan Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पकचारित्र का रूप ) { १३ सेयम या चिन में जितनी अपूर्णता है उतने ही अधिक नियमों येः वधन रखना पठते ई । हौ, यह वात अनद्य है स्रि अपाद अनुकरणीय नहीं होते | अपयाद प्रत्येक प्राणी को योग्यता और उसकी परिस्थिति के अनुसार হী हैं | मतल्त्र यह हैं कि कोई काथ चदि बह नियम के अन्दर हो या नियम के बाहर हो, अगर उक्षति कल्याण की वृद्धि होती है तो वह चारित्र है अन्यथा अचाएित रे । किसी काय को नियमों की कसैीटी पर कमर उस की जाँच नहीं करना चाहिये, किन्तु कल्याणफारज्ता की कसी पर कसकर उसकी जौच करना चाहिये। धर्माध्म की परीक्षा का यही सर्येत्तम उपाय है | इसका यह मतल नहीं है कि नियम वेज हैं ) साधक अग्स्था में नियमों की जरूरत अनश्य है। परन्तु जब भनुष्य सयमनिष्ठ षे जात। है तवर वह नियमे कै पाटन कएने धा चेटा नह करता, भिन्त कल्याणकारकता को कसट वनाकर उप्ती के अजुसार कार्य करता हैं। उस प्रकार कार्य करने से नियमों का पान आप से आप द्वे। जाता है । यदि कभो नहीं होता तो मी इससे चारित में बुछ टि नदीं होती बल्कि कमी कभी वह नियम ही सशोधन के योग्य दो जाता है | नियम भरद्यक दने प्र मी जो भै यहम उनपर जोर नदी दे रहा हू, इसका कारण यह है कि नियमों को सार्यक्रालिक या জাওনিক रूप नहीं दिया जा सकता | उनको परिस्थिति के अनु- सार बदलने की आपउश्यकता होती है । दूसरी वात यह है জি असंयमी भी सयम के नियमों का अच्छी त्तरद पालन करते हैं,




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