राष्ट्रभाषा गद्य-पद्य संग्रह | Rashtrabhasha Gadya-padya Sangrah

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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॥ -4..॥ निरी किस्मत और भाग्य पर वे ही लोग रहते है, जो आल्सी हे। किसी ने अच्छा कहा हें-- “देव-देव आलसी पुकारा 1” ईश्वर भी सानुकूल और सहायक उन्ही का होता है, जो अपनी सहायता अपने आप कर सकते हँ । अपने आप अपनी सहायता करने की वासना आदमी मे सच्ची तरक्की कौ बुनियाद हं। अनेक सूप्रसिद्ध सत्पुरुषो कौ जीवनि्यां इसके उदाहरण तो है ही, वरन्‌ प्रत्येक देश या जाति के लोगो से वर ओर ओज तथा गौरव ओर महत्व के आने का आत्मनिभैरता सच्चा द्वार ह । बहुधा देखने मे आता ह कि किसी काम के करने में बाहरी सहायता इतना लाभ नही पहुंचा सकती, जितनी आत्मनिर्भरता । समाज के वधन मे भी देखिए, तो बहुत तरह के सशोधन सरकारी कानूनो के द्वारा वैसे नहीं हो सकते, जैसे समाज के' एक-एक मनुष्य के अलग-अलग अपने सशोधन अपने आप करने से हो सकते ই। कडे-से-कडे कानून आलसी' समाज को परिश्रमी, अपव्ययी या फिजूलखर्च को किफायतशार या परिमित व्ययशील, शराबी को परहेज- गार, क्रोधी को जात या सहनशील, सूम को उदार, छोभी' को सतोषी, मृखं को विद्धान्‌, दपीध को नस््र, दुराचारी को सदाचारी, कदयं को उन्नत- मना, दरिद्र भिखारी को आढ, भीरू-डरपोक को वीर-धुरीण, झूठे गयो- डिये को सच्चा, चोर को सहनशील, व्यभिचारी को एक-पत्नी-त्रतधारी इत्यादि नही बना सकते; कितु ये सब बाते हम अपने ही प्रयत्न ओर चेष्टा से अपने मे छा सकते हें। सच पूछो, तो जाति या कौम भी सुधरे हुए ऐसे ही एक-एक व्यक्ति की समष्टि है। समाज या जाति का एक-एक आदमी यदि अलग-अरूग अपने को सुधारे, तो जाति-की-जाति या समाज-का-समाज सुधर जाय। सभ्यता ओर हं क्या? यही कि सम्य जाति कै एक-एक मनुष्य आवार, वृद्ध, वनिता सबों मे सम्यता के सव लक्षण पाये जायं । जिसमे




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