उत्तरी भारत में सामाजिक आर्थिक परिवर्तन | Uttari Bharat Mein Samajik Aarthik Parivartan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विभाजन एवं वैश्य-शू्रावलम्बी समाज का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में पाया जाता है लेकिन एक परवर्तीकालीन उद्धरण को आधार बना कर पूरे ऋग्वैदिक काल का ऑकलन नहीं हो सकता। डा. रोमिला थापर कहती है कि वर्णं चेतना का विकास उस समय तक बिल्कुल नहीं हो पाया था। इस सम्बन्ध में श्री आर. एस. शर्मा का कथन भी समीचीन जान पड़ता है कि वैश्य-शूद्रावलम्बी सामाजिक संरचना वैदिक ऋग्वैदिक युग में नहीं पायी जाती वैदिक इंडेक्स” के लेखकों की राय है कि ऋग्वेद में वर्ण व्यवस्था स्वीकृति पाने के लिए सघर्षरत थी।' ऋग्वेद मेँ वर्णं शब्द का प्रयोग “आर्यं वर्ण तथा दास वर्ण” के ख्प मेँ मिलता है जो रंग के अर्थं मेँ व्यवहृत है। उस अर्थ में नहीं जिस अर्थ में वाद के कालों में वर्ण व्यवस्था समझी जाती थी। जहाँ तक ऋग्वैदिक काल का सम्बन्ध है इस काल तक ये चारों वर्ण वंशानुगत नहीं हुए थे। ये केवल वृत्ति परक नाम थे जिन्हें अपनी क्षमता एवं इच्छा से कोई भी आर्य अपना सकता था। ये वर्ण स्थायी एंव रूढ़ न होकर पर्याप्त लचीले थे। ऋग्वेद में ब्राह्मण शब्द का शायद सर्वप्रथम प्रयोग प्रतिभावान्‌ या गुणवान के अर्थ में हुआ है।' पुनश्च्‌ पौरोहित्य कर्म सदैव ब्राह्मणों के ही हाथों में नहीं रहता था। दास, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण इस कार्य को सम्पादित करते उल्लिखित है। जैसा कि नाम से अभिद्योतित होता है, दिवोदास, संभवतः दास थे ओर पुरोहित भी थे” क्षत्रिय पुरोहित विश्वामित्र की प्रसिद्धि अज्ञात नहीं है। इस प्रकार एक वर्ण के रूप में ब्राह्मण की स्थिति ऋग्वेद तक तो मान्य नहीं प्रतीत होती। इसी भाँति ऋग्वेद में श्षज' शब्द के भी अनेक आशय है ।` इनका प्रयोग जाति के अर्थ में न होकर शक्ति सम्पन्न व्यक्ति के रूप में हुआ है। ऋग्वेद में क्षत्र एवं क्षत्रियों का अर्थ राज्य क्षेत्र एवं राज्य क्षेत्र के निवासियों से हैं।' मूलतः: इस शब्द का अर्थ सैन्यबल या राज्य क्षेत्र से है। ऋग्वेद में योद्धाओं के लिए राजन्य शब्द भी प्रयुक्त हुआ है. जिसके कई सन्दर्भ है जैसे - गमन करने वाला, मार्ग दर्शक, नेतृत्वकर्ता, सैन्य-संचालक, आदि। तात्पर्य यह कि वर्ण के रूढ़ अर्थों में इस वर्ण का भी विकास नहीं हो पाया था।




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