मोह माया | Moh Maya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३ पहाड़ियों की ओट में उषा ने अपना प्‌ घठ उघारा। रजनी शर्मायी- दार्मायी-सी अपने चेहरे को अपने काले आँचल से छिपाये पहाड़ियों को गहरी खोह में छिप कर सिसकियाँ मरने छगी । खिड़की की दरार में से होकर उपा की किरणें मोहन को चारपाई के दर्द-गिदं नाचने लगीं । नाचने लगीं भौर नाच नाच कर उसकी बफं वन गहै, रगो मे गमीं भरने लगीं । और जब उसका जम-सां गया रक्त फिर धमनियों में दौड़ने छगा, तो उसने अपनी पलक खोलीं, पैर फैलाए और एक अँगड़ाई ली | शरीर की सारी रगे चर्ख उठीं। रगे गरमा तौ अवश्य उठी थीं, पर सदौ अग्र भी उने मायी हृ थी । उर कर उसने चल बरन गई, चारपाई को खडा कर दिया ओर जमीन पर कागज्ञो के पास पड़े दीवट को देखा कि शायद उसमें थोड़ा-सा तेल बचा हो, जिसे अपने बदन पर मलकर वह अपने को काँपने से बचा सके | पर दौवर सूखा पढ़ा था। उसमें पड़ी बत्ती राख हो गई थी और तवे उसे याद आया कि तेल समाप्त हो जाने की ही बज़ह से वह उठ- कर चारपाई पर आ गया था, नहीं तो,शायद रात मर जागता रहता, जागता रहता, और कॉपत! रहता और लिखता रहता ) मन में शूत्य की-तो उदासी मर गर) पैरों पर पढ़ती किरणों की गर्मी बढ़ती जा रही थी। खिड़को खोल कर बद वहीं ज़मीन पर बैठ गया | किरण उसके शरीर को स्नान कराने लगीं | हाथ, पेर और सीने-को अपनी हथेलियों से रगड़्कर उसने अपने शरीर में छिपी सर्दों को मी भगा दिया ।




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