महाभारत के मुक्ति रत्न | Mahabharat Ke Mukti Ratn

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Mahabharat Ke Mukti Ratn by इन्द्रचन्द्र - Indrachandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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धममें वर्धति वर्धन्ति सर्वभतानि सबंदा। तस्मिन्‌ हसति हीयन्ते तस्माद्‌ धमं न लोपयेत्‌ ॥ (श्ान्तिपवं, अ० ९०, इलो° १७) धमे की वृद्धि होने पर सभीकी वृद्धि होती है तथा उसका हास होने पर सबका हास होता है, अतः धमे का लोप नहीं करना चाहिए । २ अहवमेध - सहसरं च सत्यं च तुल्या धृतम्‌ । अइवमेध - सहस्राद सत्यमेव विशिष्यते ॥ (अनृक्ासनपवं, अ० ७५, इलो० २९) एक हजार अरवमेध यज्ञो ओर सत्य को तुला पर तोला गया तो हज़ार अश्वमेधो की अपेक्षा सत्य को भारी, अर्थात्‌ श्रेष्ठ, पाया गया । ३ अरहिसा परमो धमस्तर्थाहिसा परं तपः। आहसा परमं सत्यं यतो অল: সনলল।। (अनु ०, अ० ११५, इलो० २३) अहिसा परम धमं है, ओर अहिसा ही परम तप है, अहिसा ही परम सत्य है; क्योकि इसीसे धमं प्रवृत्त होता है ।




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