आलोचना [अक्टूबर 1952] | Aalochna [Oct 1952]
श्रेणी : पत्रिका / Magazine
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
12 MB
कुल पष्ठ :
258
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इतिहात का नया दृष्टिकोण १५
कड़ी । एक साहित्यिक प्रवृत्ति के अन्त से ही दूसरी साहित्यिक प्रवृत्ति की उत्पत्ति जुड़ी हुई है।
कुछ पू्ववर्ती इतिद्वासकारों ने साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास बतलाते समय इस सिद्धान्त को
भुलाकर एक ही प्रवृत्ति को शाश्वत और सनातन रूप में दिखलाने की चेष्टा की है । जैसे सन्त
परम्परा को उठाया तो जयदेव से लेकर गाँधी तक पहुँचा दिया और दिखलाया कि एक ही प्रद्ृत्ति
श॒ताब्दियों से अविकल रूप में चली श्रा रही हे। हिन्दी-साहित्य की प्रकृत्तियों का इतिहास
लिखने वालों ने प्रायः इस उत्थान-पतन के गतिशील क्रम को भुला दिया है। बाबू साहब ने
(हिन्दी भाषा और साहित्य” में वीरगाथाओं की परम्परा दिखाते समय यही भूल की हे | यद
भी आध्यात्मिक प्रणाली का दोष हे ।
इन्द्ात्मक प्रणाली की तीसरी विशेषता है--विकास-क्रम को ऊध्वोन्मुख और अग्रसर रूप
में देखना । विकास का श्रर्थ पुनराइति अथवा बृत्ताकार परिक्रमा नहीं है। पुनरुत्थान युग के
इतिहासकारों ने बहुत सी वर्तमान प्रदृत्तियों को ज्यों-का-त्यो श्रतोत में खोज दिखाया और श्रतीत
के स्वणं-युग के पुनरागमन की कल्पना की । छायावादी कविता की ररोमारिटक भावनाः को कुछ
विचक्षणों ने रीति-काल के भनानन्द, बोधा, ठाकुर आदि कवियों पर आरोपित कर दिया। इसी
तरह “बिहारी सतसई? को 'शादा सत्तसई” के नजदीक बैठाया गया। आचार दजारीप्रसाद द्विवेदी
की स्वच्छं दृष्टि ने इस तरह के भ्रमों का उच्छेंद “हिन्दी साहित्य की भूमिकाः मे क्या हे।
इतिहास में कोई प्रवृत्ति दुदराई जाने पर उपहततास्पद द्वो जाती है जैसे रामाय के वजन पर
आधुनिक युग मे लिखा हुआ कृष्णायण्ः । यद् उरवान्मुख विकास-क्रम सोद श्य हे और निश्चित
लक्ष्य की ओर बढ़ रहा हे । यदि इस बात को भुला दिया जायगा तो फिर इतिहास के अध्ययन
ओर निर्माण का प्रयोजन ही क्या दोगा ! पू॑वर्ती इतिहासकारो ने इसे लक्षित नहीं किया था,
इसीलिए, बे इतिहास के केवल स्याहानवीस यने रहे ।
इन्द्वात्मक प्रणाली की चोथी विशेषता है--वस्तुओं, व्यक्तियों, घटनाओं और विचारों में
असंगति अथवा श्रन्तविरोध को पदचानना । उदाहरणस्वरूप भक्ति-काव्य के लोकोन्मुखी यथार्थ
और अलौकिकता में आभ्रय लेने वाले आदर्श मे अन्तविरोध था। इस अन्तर्विरोध के समझने
पर ही स्पष्ट हो सकता है कि किस प्रकार उनके अलौकिक तत््वो“को लेकर पीछे सम्प्रदाय और
मठ खड़े दो गए और लोकोन्मुखी यथार्थ ने १६वी सदी के सास्कृतिक पुनर्जागरण को बल दिया।
इसी तरह नायिका भेद-परक रीतिवादी काव्य का उद्गम समभने के लिए इष्णु-काव्य के अन्तविरोधो
का ज्ञान आवश्यक हे। आधुनिक युग में छायावाद के अन्तर्विरोधो ने ही प्रगतिशील सामाजिक
यथार्थ भावना को जन्म दिया । अ्रसंगतियों अथवा अन्तर्विरोधों के सहारे ही एक युग मे पाई
जाने वाली अनेक प्रवृत्तियों का कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता हे। इसी प्रणाली
के श्रभाव मँ शुक्लजी को श्रपने इतिहास मे “श्रौसतवाद* का सहारा लेना पडा । युग-विशेष की
प्रवृत्ति ही नहीं बल्कि प्रत्येक साहित्यकार तथा साहित्यिक कृति मे यह असंगति मिलती हे, क्योंकि
वह असंगति वालें समाज की उपज है। कभी-कभी लेखक के राजनीतिक-सामाजिक दृष्टिकोण तथा
साहित्यिक चित्रण में असंगति दिखाई पडती दे । इसलिए इन बातों को ध्यान मे रखने पर ही
इतिहास का सम्यक् अध्ययन तथा साहित्यकारों का सदी मूल्यांकन सम्भव हे ।
ऐसी ऐतिहासिक प्रणाली का सह्दी उपयोग भौतिकवादी दृष्टिकोण से ही हो सकता है,
क्योंकि साहित्य के इतिहास को परस्पर-सम्बद्ध, क्रमचद्ध, गतिशील, आइसत्तिहीन ऊध्वैमु दंग
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