छायावाद विश्लेषण और मूल्यांकन | Chhayawad Vishleshan Aur Mulyankan

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Chhayawad Vishleshan Aur Mulyankan by श्री दीनानाथ 'शरण' - Shree Dinanath 'Sharan'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) (१४) डा० विनयमोहन शर्मा, एम० ए०: “यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो छायावाद कोई वाद नहीं बन सकता । उसके पीछे कोई दाशनिक या परपराजन्य भूमि नही दिखाई देती । उसे हम कान्य की एकं रली कह सकते है ।* ओर अगे वे कहूते है-- छायावाद को रचनाओं मे भावों की नवी. नता को अपेक्षा, भावों को व्यक्त करने की कला में नवीनता अवश्य थी | और कवि की दृष्टि भी वाह्य जगत से हटकर अपने 'भीतर' ही रमने लगी--और अन्तवृति-निरूपक सारी रचनायें छायावादी शली की कृतियाँ कहला सकती है ।”? ( १५) श्री विश्वम्भर मानव : “प्रकृति में चेतना के आरोप को छायावाद कहते हैं। यह आरोप आलंकारिक रूप में न हो, वास्तविक ढंग का हो । कहने का तात्पयं यह कि प्रकृति में चेतता की अतुभूति की प्रतीति पाठक को वर्णन से ही होने लगे । मनुष्य को इस बात में कुछ आनन्द आता है कि वह्‌ यहं देखे कि जंसे सुख-दुख का अनुभव वह करता है, उसी प्रकार ओौर सभी कर । दूसरे शब्दो मे प्रकृति मे मानवी भावोंका आरोप छायावाद है 13 श्री विहवम्भर भानव ने आगे फिर बतलाया है, “श्रकृति में चेतना की अनुभूति गौर प्रकृति में तत्वों का पारस्परिक भाव-संबंध छायावाद कहलाता है। प्रकृति से ऊँचे उठकर आत्मा-परमात्मा का पार- स्परिकं प्रणय-व्यापार रहस्यवाद की कोटि में आता ह | अर्थात्‌ छायावाद प्रकृति के क्षेत की वस्तु है | रहस्यवाद अध्यायके क्षेत्र की।*> (१६) श्री सद्गुरुशरण अवस्थी : आज হিল “छायावाद” के नाम से जो कुछ हिन्दी में प्रसिद्ध है उसे केवल अभि- व्यंज ना-चमत्कार ही समझना चाहिए ।” (१७) 'सुमन' और 'मल्लिक' : “छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थो होता है। एक तो उस रहस्यमय अर्थ में जहाँ कवि अपनी अनेक चित्रमयी भाषा में उस अज्ञात प्रियतम के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त करता है और अनेक रूपकों द्वारा अपने प्रियतम का चित्र खीचता हैं। छाय।वाद का दूसरा अथं है प्रस्तुत में अप्रस्तुतुका कथन | इस अथे में कवि प्रकृति को सजीव मानकर उसको प्रत्येक वष्ये-वस्तु में चेतनाजन्य क्रियाएँ देखता है |” ( १८ ) प्रो० क्षेम' एम० ए७ : “इस प्रकार यह्‌ सिद्ध हुआ कि आंतरिक सौंदय या स्वानुभूति को ही. प्रस्थान्‌-बिन्दु আটা প্রি পপ পপ नि नमन ना ननीनननननान नर माप 11% १-- सुमित्रानन्दन पंत, पृष्ठ ६६ -- श्री विश्वस्भर “मानव २--वहीं, पृ १०६ ३-सा्िस्यण्वित्रे चत; एष्ट ९१४; सुमन 1 मज्िक




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