भारतीय दर्शन का इतिहास भग 3 | Bhartiya Darshan Ka Itihas Part 3

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Bhartiya Darshan Ka Itihas Part 3  by डॉ. एस. एन. दासगुप्त - Dr. S. N. Dasgupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भास्कराचार्य का सम्प्रदाय | [ ५ कार्य कारण की ही एक पझ्बस्था है श्लौर कारण से भिन्न भौर अभिन्न दोनों है । कार्य प्र्थात्‌ नाम (नामधेय) सत्य है और श्रूति भी ऐसा ही कहती है।* मास्कराघार्य शकराचाय के मत का खडन इस प्रकार करते है, मायावादी, नाना रूप जगत्‌ की सत्ता मानने वालों के विरोध में जो दलील देते हैं वे ही उनके विरोध में भी दी जा सकती है क्योंकि वह भ्रद्वेत की सत्ता मानते हैं। जो व्यक्ति श्रुति का श्रवण भ्रौर तत्त्वचितन करता है वह स्वय प्रथम भविद्यासे प्रभिभूतहोता दहै भौर प्रगर इस अ्रविद्या के कारण उसका द्वत ज्ञान मिथ्या तो उसका भ्रद्ैतं ज्ञान मी उसी कारण. वश मिथ्या माना जा सकता है। समस्त ब्रह्म ज्ञान मिथ्या है, क्योंकि यह भी जगत्‌ के शान की तरह मिथ्या ज्ञान है। वे प्रागे फिर ऐसी दलील देते हैं कि जिस प्रकार स्वप्नार्थ ध्लौर दाब्द के मिथ्या ज्ञान द्वारा, भ्रच्छे बुरे का किसी भौर भ्रथ॑ का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, ठोक उसी प्रकार प्रदैत मतवादी उपनिषद्‌ ग्रन्थो के शब्दार्थों के मिथ्या ज्ञान द्वारा ही सच्चा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु यह तकं मिथ्या-साहश्यानुमान पर शभ्राधारित है। जब कोई कुछ स्वप्नों के भले-बुरे परिणाम के बारे में निर्णय करता है तब वह बिना किसी झ्राधार के ऐसा नही करता, क्योकि उसके निरय का प्राधार विशेष प्रकारके स्वप्नो के प्रनुभव ही हैं। भोर स्वप्नानुभव तथ्य है जो अपनी विशेषता रखते हैं। शश-विषाण (लरगोकष के सीग) की तरह केवल मिथ्या नही हैं। शश-विषाण के दृष्टान्त के সালাহ पर कोई किसी निशंय पर नही पहुँच सकता । वर्र्णों का भी झ्रपना आकार और रूप है भौर इनका सवंसाधारणा की मान्यतानुसार, विशेष ध्वनि से सम्बन्ध है। यह भी मानी हुई बात है कि भिन्न देशो में भिन्न-भिन्न वर्णों का उपयोग एक ही ध्वनि के सूचन में किया जा सकता है। पुनः झ्रगर कोई किसी भुल से भय का श्रनुभव करके मर जाता है तो वह केवल श्रसतु या मिथ्या वस्तु के कारण नहीं मरता, क्योकि वह सचमुच डरा था, उसकी मृत्यु का कारशा भय था, जो किसी यथार्थ वस्तु की स्मृति से उत्तेजित हुश्ना था। भय के प्रनुभव में मिथ्यात्व केवल इतना ही था कि डराने वाली जिस वस्तु कामयहुभ्रा वहु उस समय उपस्थित नहीं थी। इस प्रकार हम ऐसा कोई भी दृष्टान्त नहीं प्रस्तुत कर सकते, जिससे हम यहू सिद्ध कर सके कि मिथ्या-ज्ञान या केवल १) बागिद्द्रियस्थ उभयमारम्मरश विकारों नामधेयम्‌ ““उभयमालम्ब्य बागठ्यवहारः प्रवत॑ते घटेन उदक श्राधारे5ति मृण्मयं इत्यस्य इदं व्याख्यान कारणमेब कार्यात्मना घटवदवतिष्ठते ` कारणस्यावस्यामात्रम्‌ क्रायं व्यतिरिक्ता-भ्यतिरिक्त शुक्ति-रजत- वदागमापा यिधमित्वाच्च श्रनृतम्‌ भ्रनित्यमिति च व्यपदिश्यते । -भास्कर भाष्य, २-१-६४ । * श्रथ नामधेय सटथस्य सत्यमिति * इत्यादि । -वही ।




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