उपनिषद का उपदेश | UPNISHAD KA UPDESH

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UPNISHAD KA UPDESH by कोकिलेश्वर भट्टाचार्य - Kokileshwar Bhattacharyaनन्दकिशोर शुक्ल - Nandkishor Shukla

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नन्दकिशोर शुक्ल - Nandkishor Shukla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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লিপ পাপ পচ अवतरणिका ` ঙ समझ पाते हैं। क्‍योंकि इदकी भपनी तो फोर सत्ता है नहीं प्रह्म सत्तामें ही' इनकी लत्ता है। इसी को फद्दते है कारण-लत्ता। यह सत्ता खोकार किये पिता ब्रह्म 'ही असत्‌ द्वोजायगा १ (ख ) हम वेदान्तद्शनमें सघसे पहले दो यातें देखते हैं। एक-परमार्थ हृष्टि पर ; हि और इसरो-ध्यवदारिक द्वृष्टि । भिन्न २ द्विविध यजुभव होने से यद दो চবি दृष्टि प्रवारकी दृष्टि फौ चात कदी गई है । सुतरां श्न षो प्रकार की हृष्टियोंके पीचमें वास्तविक कोई विरोध नहीं 1 मश् या साधारण जन जिस भाषसे इस जगत्‌ का भनुभव करते हैं, उस का नाम व्यावहारिक दृष्टि, है। भौर तत्वज्ञा- नी दार्शनिक परिडतगण जिस भाव से इस जगत्‌ को जानते मानते हैं, उसका नाम है 'परमार्थद्रृष्टि,! इस लिये दन दोषं कोई विरोध नदीं । दोनो $ वीच सामञ्जस्यं स्पष्ट है। तत्वष्ञ व्यक्ति, इस नाम झुपात्मक जगत्‌ में फेषल एक ब्रत्मसत्ता दी अनुस्यूत देखते-हैं । सूर्य, चन्द्र, तरु लता,-फीट पतङ्क देदेन्द्रियादि-विधिध ओर असंख्य नाम रूपात्मकं पदार्थो से ही यह जगत्‌ दै । पर तस्यदं मदात्मा - इन सय वस्तुओं मे फिसौ की भी 'खतन्‍्त्र,-खाधोन सत्ता का अनुभव नहीं कर पाते । थे देखते हैं कि सब पदार्थों में एक कारण सत्ता वा प्रह्मसत्ता दी ओत प्रोत हो रही है । इस फारण सदी घटशरायाद्या घिफ्रारास्तत्तराकृति: ।'''भाधारों सत्तिकाधेय भाकार- श्रोभय॑~-घटः !' भारुलयाधासयोस्तुस्थं भागत्वं न मद्‌ चिना । केवलारृतिमात्रः सन्‌ घटः फापि समीक्ष्यते” अनुभूतिप्रकाश, ३! १। १० “खाणावारोपिश्चौरः यथा शुदि धरस्तथा | दविविधव्प्रवहारस्य सद्भावेऽपि विवेकिनः | सद्यायाम्‌ शद तात्पर्य नानृतेऽस्ति धदादिके । २। १६ ।२०९॥ रज्जु्द्यं यथा सपंधारादिष्वनुगच्छति । द्र क्वप्तरवं तथा व्थोमवादयादिष्वञुगच्छति । ३।१३॥ “क्यमाकाशादिकं यडुपरपश्च'जगत्‌ कारणं परं बरहम । तस्मात्‌ कारणात्‌ परमार्थतः व्यतिरेकेण अभावः कार्यस्यावग- स्पति” । वेदान्तभाष्य॥1२। १। १४ । .._ + यथा पुरोचर्तिनिभुजगाभावमनुभवन्‌ विवेकी--“नास्ति भुजंगोरज्ज्रेपा कर्थ वुयैच- विभेषीति”--प्रान्तमसिद्धाति । भ्रान्तस्तुलकीयापराधादेव मुज परि- कर्य भीतः सन्‌ पायते; न च तन्न विवेकिनो पचनं मददरा विरुध्यते । तथा परमात्मकूटय्यात्मद्शन न्यवहारिकजनादि वचनेन अविरुद्धम्‌ ।-माएड्क्यकारिका- भाष्ये भानन्द्निरिः । ४।५७॥ तैः ( दतै: ) सर्वानन्यत्ात्‌ आत्तैकदशनपक्षो न चिसंध्यते । मार्ड्कयकारिफा भाष्य । ३। १७ | .




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