सुबाहुकुमार | SubahuKumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सुवाहुकुमार १७ पासादिया दरिसण्ज्जिा গ্গলিহনা पडिर्वा ्रदीणसत्तुएणं रण्णा सिद्धि श्रगुरता श्रविरत्ता इटं सदहृफरिसरसरूवगधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चुन्भवमाणी विहरति । भावार्थ--उस अदीनझत्रु राजा की घारिणी नाम की रानी के हाथ-पर बडे ही कोमल थे। उसका शरीर सब लक्षणों से सम्पन्न और परिपूर्ण पाँचो इन्द्रियो से युक्त था। उसके दारीर भे स्वस्तिक, चक्त आदि लक्षण और तिल आदि व्यञ्जनये। उसके दारीरके सव अग मान- उन्मान और प्रमाण के अनुसार ही वने थे। उसका चन्द्रमा के समान सौम्य और मनोहर अग वाला रूप देखने वालों को वडा ही प्यारा लगता था। उसकी त्रिवलियुक्त कमर मुट्ठी मे आ जाती थी। गालो की पत्र-रचना कानो के कुण्डल से चमकदार हो गई थी। उसका मुख कार्तिक में उदय होने दाले चन्द्रमा की चन्द्रिका ऐसा था। उसका वेश श्ृद्धार रस क्रा स्यान-सा हो गया था । उसका चलना, हसना, चेष्टा और कटाक्ष उचित था। वह प्रसन्नता पूर्वक परस्पर भाषण करने से कुशल तथा लोकव्यवहार में चतुर थी। वह मनोहर तथा হ্হাঁলীয থীঃ इसलिये देखने वाले का चित्त उसे देखते ही प्रसन्न हो जाता था। वह सदीनशत्रू राजा मेँ अनुरक्त थी । उसका शब्द, रूप, रस, गथ ओर स्प प्रिय था। वह मनुप्यों के पाँच प्रकार के काम-भोगो फो भोगत्ती हुई रहती थी । मतलब यह कि वास्तविक वात का वर्णन करने से साधुओं को नही रोका गया है । क्योकि ऐसी वाते भी प्राय पुण्य-अभाव प्रकेट करती हैं। फिर ऐसे वर्णन से जिसका जैसा अध्यवसाय होगा, वह वैसा पुण्य या पाप का फल प्राप्त करेगा। अच्छे अव्यवसाय वाला पाप स्यान मे भी पुण्य प्रकृति बाँध सकता है और बुरे अध्यवसाय वाला धर्मे- स्यान मे भी पाप प्रकृति वाध सकता है । इसके लिये एक दृष्टान्त दिया जाता है ।




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