हिंदी उपन्यास : सिद्धान्त और विवेचन | Hindi Upanyas Siddhant Aur Vivechan

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Hindi Upanyas Siddhant Aur Vivechan by डॉ ० महेंद्र - Dr. Mahendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिन्दी-उपन्यास ६ की व्यास्या करना 1 पहले श्रीयुत देवकीनन्दन खत्री का इस विषय में मतभेद था, परन्तु जद व्याख्या के साथ भानन्दययी विशेषण भी जोड़ दिया गया त्तो वे भी सहमत हो गये । स्वरूप पर काफ़ी दिवाद चला--प्रस्त में मेरी हो जैसी ऊच्र के एक भहाशय ने प्रस्ताव विया, “इस प्रदार तो समय লী হাথে লে होगा, पौर शुद्ध सिद्धि भी नहीं होगी । हिन्दो के सभी प्रतिनिधि उपत्यासकार उपस्थित हैं। भब्छा हो यदि वे एक-एक कर बहुत ही सक्षेप में उपन्यास के स्वरूप भौर धसपने उपस्शतत-्साहित्य के दिपय में प्रपना-पपता हृष्टिकोण प्रकट करते चलें ) उपन्यास के स्वरूप भौर हिन्दी के उपन्यास के विवेचत का इससे सुन्दर ढडू भौर बया हो सबता है ?” प्रस्ताव काफी सुलम्य हुआ था-- फ्लतः सभी ने मुक्तकष्ठ से स्वीकार कर लिया। विवेचन में एकता भौर হবয়েরা बनाये रखने के विचार से उन्हीं सहन ने एक प्रश्नावली भी पेश कर दो, जिसके प्राघार पर उपन्यासकारों से बोलने को प्रार्थना की जाय | उसमे बेवल सीन प्रइन थे :-- (१) भ्रापके मत में उपन्यास का वास्तविक स्वरूप कया है ? (२) भ्रापने उपन्यास वर्षों लिखे हैं ? (३) भपने उद्देश्य में भापको कहाँ तक सिद्धि मिली है ? भ्श्गावली भी सुलकी हुई थी, फौरन स्वीडृत द्रो गयी, पर प्रस्ताव कराते ही कह दिया गया कि भाप ही छृपाकर इस कार्यवाही को गति दे दीजिये সন্তু ! सबसे पहले उपम्यास-सद्रद्‌ प्रमचन्दजो से भारम्भ किया जाय 1 लेकिन प्रेमचन्दजी ने सविनय एक भोर इशारा करते हुए कहा --/नहीं, मुझसे पूर्ववर्ती बाबू देवकीनन्दन खडी से प्रार्थना करनो चाहिए । देवकोनन्दनजी हिन्दी के प्रथम मौलिक उपन्यासकार हैं ।” प्रेमचन्दजी के भाग्रह पर एक सामास्य-्सा व्यक्ति, जिसकी भ्राकृति मुझे स्पष्टलः याद नही है, धीरे से लड़ा পা পীত कहने लगा--“माई ! भ्राज तुम्हारों दुनियाँ दूसरी है-सुम्हारे विचारों में दाशंनिक्ता श्लौर सवीनता की छाप है | हमतो उपन्यास को कल्पित कया समभते थे--इसके प्रतिरिक्त उसका भोर कोई स्वरूप हो सकता है, यह तो हमारे ध्यान में भी नही श्राठा था । मैंने देश-विदेश को विभिन्न कथायें बड़े मनोयोग से पढ़ी थी-भौर उनको पढ़कर मुक्े मह्‌ प्रेरणा हुई थी कि मैं भो इसी प्रकार के भ्रद्श्त कयातको को सृष्टि से जनता का मनोरंजन कर, यश लाभ करूँ । इसोलिए मैंने 'बन्द्रकान्ता सन्‍्तति” लिख डाली। সহমত ক সবি निर्वाध भ्राकर्षश होने के कारणा मेरी कल्पना उत्तेजित होकर उप्त चित्र-लोक हर




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